महाभारत आदि पर्व अध्याय 74 श्लोक 1-7
चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहां जाना, दुष्यन्त– शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्वि का यमर्थन और भरत का राज्याभिषेक
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! जब शकुन्तला से पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके राजा दुष्यन्त चले गये, तब क्षत्रिय कन्या शकुन्तला के उदर में उन महात्मा दुष्यन्त के द्वारा स्थापित किया हुआ गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने और पुष्ट होने लगा। शकुन्तला कार्य की गुरुता पर दृष्टि रखकर निरन्तर राजा दुष्यन्त का ही चिन्तन करती रहती थी। उसे न तो दिन में नींद आती थी और न रात में ही। उसका स्नान और भोजन छूट गया था। उसे यह दृढ़ विश्वास था कि राजा के भेजे हुए ब्राह्मण चतुरांगिणी सेना के साथ आज, कल या परसों तक मुझे लेने के लिये अवश्य आ जायंगे। भरतनन्दन ! शकुन्तला को दिन, पक्ष, मास, ॠतु, अयन तथा वर्ष- इन सबकी गणना करते–करते तीन वर्ष बीत गये। जनमेजय ! तदनन्तर पूरे तीन वर्ष व्यतीत होने के बाद सुन्दर जांघों वाली शकुन्तला ने अपने गर्भ से प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, रुप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न, अमित पराक्रमी कुमार को जन्म दिया, जो दुष्यन्तके वीर्य से उत्पन्न हुआ था। उस समय आकाश से उस बालक के लिये फूलों की वर्षा हुई, देवताओं की दुन्दुभियां बज उठीं और अप्सराएं मधुर स्वर में गाती हुइ नृत्य करने लगीं । उस अवसर पर वहां देवताओं सहित इन्द्र ने आकर कहा। इन्द्र बोले- शकुन्तले ! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा । पृथ्वी पर कोई भी इसके बल, तेज तथा रुप की समानता नहीं कर सकता । यह पुरुवंश का रत्न सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञों के द्वारा सहस्त्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणों के अधीन करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा। वैशम्पायनजी कहते हैं- इन्द्रादि देवताओं का यह वचन सुनकर कण्व के आश्रम में रहने वाले सभी महर्षि कण्व कन्या शकुन्तला के सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह सब सुनकर शकुन्तला को भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यावानों में श्रेष्ठ महायशस्वी कण्व ने मुनियों से ब्राह्मणों को बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालक का विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराया वह बुद्विमान बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा। वह सफेद और नुकीले दांतो से शोभा पा रहा था। उसके शरीर का गठन सिंह के समान था। वह उंचे कदका था। उसके हाथों में चक्र के चिन्ह थे। वह अद्भुत शोभा से सम्पन्न, विशाल मस्तक वाला और महान् बलवान् था। देवताओं के बालक-सा प्रतीत होने वाला वह तेजस्वी कुमार वहां शीघ्रता पूर्वक बढ़ने लगा। छ: वर्ष की अवस्था में ही वह बलवान् बालक कण्व के आश्रम में सिंहों, व्याघ्रों, वराहों, भैंसों और हाथियों को पकड़ कर खींच लाता और आश्रम के समीपवर्ती वृक्षों में बांध देता था। फिर वह सबका दमन करते हुए उनकी पीठ पर चढ़ जाता और क्रीड़ा करते हुए उन्हें सब ओर दौड़ाता हुआ दौड़ता था। वहां सब राक्षस और पिशाच आदि शत्रुओं को युद्व में मुष्ठिप्रहार के द्वारा परास्त करके वह राजकुमार ॠषि मुनियों की आराधना में लगा रहता था। एक दिन कोई महाबली दैत्य उसे मार डालने की इच्छा से उस वन में आया। वह उसके द्वारा प्रतिदिन सताये जाते हुए दूसरे दैत्यों की दशा देखकर अमर्ष में भरा हुआ था। उसके आते ही राजकुमार ने हंसकर उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपनी बांहों में दृढ़तापूर्वक कसकर दबाया। वह बहुत जोर लगाने पर भी अपने को उस बालक के चंगुल से छुड़ा न सका, अत: भयंकर स्वर से चीत्कार करने लगा। उस समय दबाब के कारण उसकी इद्रियों से रक्त बह चला। उसकी चीत्कार से भयभीत हो मृग और सिंह आदि जंगली जीव मल-मूत्र करने लगे तथा आश्रम पर रहने वाले प्राणियों की भी यही दशा हुई। दुष्यन्त कुमार ने घुटनों से मार-मार कर उस दैत्य के प्राण ले लिये; तत्पश्चात् उसे छोड़ दिया। उसके हाथ से छूटते ही वह दैत्य गिर पड़ा। उस बालक का यह पराक्रम देखकर सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। कितने ही दैत्य और राक्षस प्रतिदिन उस दुष्यन्त कुमार के हाथों मारे जाते थे। कुमार के भय से उन्होंने कण्व के आश्रम पर जाना छोड़ दिया। यह देख कण्व के आश्रम में रहने वाले ॠषियों ने उसका नया नामकरण किया।
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