महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 34-51
एकोनविंश (19) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
शरीर के भीतर रहते हुए वह आत्मा जिस आश्रय में स्थित होता है, उसी में बाह्य और आभ्यन्तर विषयों सहित मन को धारण करे।
मूलाधार आदि किस आश्रय में चिन्तर करके जब वह सर्वस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है, उस समय उसका मन प्रत्यक स्परूप आत्मा से भिन्न कोई ‘बाह्य’ वस्तु नहीं रह जाता।
निर्जन वन में इन्द्रिय समुदाय को वश में करके एकाग्रचित हो शब्द शून्य अपने शरीर के बाहर और भीतर प्रत्येक अंग में परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करे।
दन्त, तालु, जिह्वा, गला, ग्रीवा, ह्रदय तथा ह्रदय बन्धन (नाड़ी मार्ग) को भी परमात्म रूप से चिन्तन करे।
मधुसूदन! मेरे ऐसा कहने पर उस मेधावी शिष्य ने पुन: जिसका निरूपण करना अत्यन्त कठिन है, उस मोक्षधर्म के विषय में पूछा- ‘यह बारंबार खाया हुआ अन्न उदर में पहुँचकर कैसे पचता है? किस तरह उसका रस बनता है और किस प्रकार वह रक्त के रूप में परिणत हो जाता है?
‘स्त्री शरीर में मांस, मेदा, स्नायु और हड्डियाँ कैसे होती हैं? देहधारियों के समस्त शरीर कैसे बढ़ते हैं? बढ़ते हुए शरीर का बल कैसे बढ़ता है? जिनका सब ओर से अवरोध है, उन मलों का पृथक पृथक नि:सारण कैसे होता है?
‘यह जीव कैसे साँस लेता, कैसे अच्छ्वास खींचता और किस स्थान में रहकर इस शरीर में सदा विद्यमान रहता है?
‘चेष्टाशील जीवात्मा इस शरीर का भार कैसे वहन करता है? फिर कैसे और किस रंग के शरीर को धारण करता है। निष्पाप भगवन! यह सब मुझे यथार्थरूप से बताइये’।
शत्रुदमन महाबाहु माधव! उस ब्राह्मण के इस प्रकार पूछने पर मैंने जैसा सुना था वैसा ही उसे बताया।
जैसे घर का सामान अपने कोटे में डालकर भी मनुष्य उन्हीं के चिन्तन में मन लगाये रहता है, उसी प्रकार इन्द्रियरूपी चंचल द्वादरों से विचरने वाले मन को अपनी काया में ही स्थापित करके वहीं आत्मा का अनुसंधान करे और प्रमाद को त्याग दे।
इस प्रकार सदा ध्यान के लिये प्रयत्न करने वाले पुरुष का चित्त शीघ्र ही प्रसन्न हो जाता है और वह उस परब्रह्म परमात्मा को प्रापत कर लेता है, जिसका साक्षात्कार करके मनुष्य प्रकृति एवंउसके विकारों को स्वत: जान लेता है।
उस परमात्मा का इन चर्म चक्षुओं से दर्शन नहीं हो सकता, सम्पूर्ण इन्द्रियों से भी उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धिरूपी दीपक ही सहायता से ही उस महान आत्मा का दर्शन होता है।
वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब ओर नेत्र और सिर वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है।
तत्त्वज्ञ जीव अपने आपको शरीर से पृथक देखता है। वह शरीर के भीतर रहकर भी उसका त्याग करे उसकी पृथकता का अनुभव करके अपने स्वरूप भूत केवल परब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करता हुआ बुद्धि के सहयोग से आत्मा का साक्षात्कार करता है। उस समय वह यह सोचकर हँसता सा रहता है कि अहो! मृगतृष्णा में प्रतीत होने वाले जल की भाँति मुझ में ही प्रतीत होने वाले इस संसार ने मुझे अब तक व्यर्थ ही भ्रम में डाल रखा था। जो इस प्रकार परमात्मा का दर्शन करता है, वह उसी का आश्रय लेकर अन्त में मुझ में ही मुक्त हो जाता है (अर्थात अपने आप में ही परमात्मा का अनुभव करने लगता है)।
« पीछे | आगे » |