महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 114 श्लोक 1-15

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चतुर्दशाधिकशततम (114) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चतुर्दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

गरुड और गालव का राजा ययाति के यहाँ जाकर गुरु को देने के लिए श्यामकर्ण घोड़ों की याचना करना

नारदजी कहते हैं – तदनंतर पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ ने दीन-दुखी गालव मुनि से इस प्रकार कहा- 'पृथ्वी के भीतर जो उनका सार तत्व है, उसे तपाकर अग्नि ने जिसका निर्माण किया है और उस अग्नि को उद्दीप्त करनेवाली वायु ने जिसका शोधन किया है, उस सुवर्ण को हिरण्य कहते हैं । यह सम्पूर्ण जगत् हिरण्यप्रधान है; इसलिए भी उसे हिरण्य कहते हैं । 'वह इस जगत् को स्वयं तो धारण करता ही हैक, दूसरों से भी धारण कराता है । इस कारण उस सुवर्ण का नाम धन है । यह धन तीनों लोकों में सदा स्थित रहता है । 'द्विजश्रेष्ठ ! पूर्व भाद्रपद और उत्तरभाद्रपद इन दो नक्षत्रों में से किसी एक के साथ शुक्रवार का योग हो तो अग्निदेव कुबेर के लिए अपने संकल्प से धन का निर्माण करके उसे मनुष्यों को दे देते हैं । पूर्व भाद्रपद के देवता अजैकपाद, उत्तर भाद्रपद के देवता अहिबुर्धन्य और कुबेर – ये तीनों उस धन की रक्षा करते हैं । इस प्रकार किसी को भी ऐसा धन नहीं मिल सकता, जो प्रारब्धवश उसे मिलनेवाला न हो और धन के बिना तुम्हें श्यामवर्ण घोड़ों की प्राप्ति नहीं हो सकती । 'इसलिए मेरी राय यह है कि तुम राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुए किसी ऐसे राजा के पास चलकर धन के लिए याचना करो, जो पुरवासियों को पीड़ा दिये बिना ही हम दोनों को धन देकर कृतार्थ कर सके । 'चंद्रवंश में उत्पन्न एक राजा हैं, जो मेरे मित्र हैं । हम दोनों उन्हीं के पास चलें । इस भूतल पर उनके पास अवश्य ही धन है । 'मेरे उन मित्र का नाम है राजर्षि ययाती, जो महाराज नहुष के पुत्र हैं । वे सत्यपराक्रमी वीर हैं । तुम्हारे मांगनें और मेरे कहने पर वे स्वयं ही तुम्हें धन देंगे । 'उनके पास धनाध्यक्ष कुबेर की भांति महान् वैभव रहा है । विद्वन ! इस प्रकार दान लेकर ही तुम गुरुदक्षिणा का ऋण चुका दो' । इस प्रकार परस्पर बात करते और उचित कर्तव्य को मन-ही-मन सोचते हुए वे दोनों प्रतिष्ठानपुर में राजा ययाति के दरबार में उपस्थित हुए । राजा के द्वारा सत्कारपूर्वक दिये हुए श्रेष्ठ अर्घ्य-पाद्य आदि ग्रहण करके विनतानन्दन गरुड़ ने उनके पूछने पर अपने आगमन का प्रयोजन इस प्रकार बताया - 'नहुषनंदन ! ये तपोनिधि गालव मेरे मित्र हैं । राजन् ! ये दस हजार वर्षों तक महर्षि विश्वामित्र के शिष्य रहे हैं । 'विश्वामित्र जी ने ( इनकी सेवा के बदले ) इनका भी उपकार करने की इच्छा से इन्हें घर जाने की आज्ञा दे दी । तब इन्होनें उनसे पूछा- 'भगवन् ! मैं आपको क्या गुरुदक्षिणा दूँ ? 'इनके बार-बार आग्रह करने पर विश्वामित्रजी को कुछ क्रोध आ गया; अत: इनके पास धन का अभाव है, यह जानते हुए भी उन्होनें इनसे कहा – 'लाओ, गुरुदक्षिणा दो । गालव ! मुझे अच्छी जाति में उत्पन्न हुए ऐसे आठ सौ घोड़े दो, जिनकी अंगकान्ति चंद्रमा के समान उज्ज्वल और कान एक ओर से श्याम रंग के हों । गालव ! यदि तुम मेरी बात मानो तो यही गुरुदक्षिणा ला दो ।' तपोधन विश्वामित्र ने यह बात कुपित होकर ही कही थी ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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