महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 160 श्लोक 84-103
षष्टयधिकशततम (160) अध्याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)
‘जिसे नाना प्रकार का क्लेश दिया गया हो, दीर्घकाल के लिये राज्यसे निर्वासित किया गया हो तथा जिसे राज्यसे वंचित होकर दीनभावसे जीवन बिताना पडा हो, ऐसे किस स्वाभिमानी पुरूषका हृदय विदीर्ण न हो जायेगा। जो उत्तम कुलमें उत्पन्न, शूरवीर तथा पराये धनके प्रति लोभ न रखनेवाला हो, उसके राज्यको यदि कोई दबा बैठा हो तो वह किस वीरके क्रोधको उद्दीप्त न कर देगा। तुमने जो बडी-बडी बातें कही हैं, उन्हें कार्यरूपमें परिणत करके दिखाओ ! जो क्रियाद्वारा कुछ न करके केवल मुंहसे बातें बनाता है, उसे सज्जन पुरूष कायर मानते हैं। तुम्हारा स्थान और राज्य शत्रुओंके हाथमें पडा है, उसका पुनरूद्धार करो। युद्धकी इच्छा रखनेवाले पुरूषके ये दो ही प्रयोजन होते हैं; अत: उनकी सिद्धि के लिये पुरूषार्थ करो। तुम जूएमें पराजित हुए और तुम्हारी स्त्री द्रौपदीको सभामें लाया गया। अपनेको पुरूष माननेवाले किसी भी मनुष्य को इन बातोंके लिये भारी अमर्ष हो सकता है। तुम बारह वर्षों तक राज्यसे निर्वासित होकर वनमे रहे हो ओर एक वर्षतक तुम्हें विराटका दास होकर रहना पडा है। पाण्डुनन्दन ! राज्यसे निर्वासनका, बनवासका और द्रौपदीके अपमान का क्लेश याद करके तो मर्द बनो। हमलोग बार-बार तुमलोगोंके प्रति अप्रिय वचन कहते हैं। तुम हमारे ऊपर अपना अमर्ष तो दिखाओ । क्योंकि अमर्ष ही पौरूष है। पार्थ ! यहाँ लोग तुम्हारे क्रोध, बल, वीर्य, ज्ञानयोग और अस्त्र लानेकी फुर्ती आदि गुणोंको देखें। युद्ध करो और अपने पुरूष्त्व का परिचय दो। अब लोहमय अस्त्र–शस्त्रोंको बाहर निकालकर तैयार करनेका कार्य पूरा हो चुका है। कुरूक्षेत्रकी कीच भी सूख गयी है। तुम्हारे घोडे़ खूब ह्रष्ट-पुष्ट है और सैनिकोंका भी तुमने अच्छी तरह भरण-पोषण किया है; अत: कल सवेरेसे ही श्रीकृष्ण के साथ आकर युद्ध करो। अभी युद्धमें भीष्मजी के साथ मुठभेद किये बिना तुम क्यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो? कुन्तीनन्दन ! जैसे कोई शक्तिहीन एवं मन्दबुद्धि पुरूष गन्धमादन पर्वतपर चढ़ना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी अपनी झूठी बडाई करते हो । मिथ्या आत्मप्रशंसा न करके पुरूष बनो।
पार्थ ! अत्यन्त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानोंसे श्रेष्ठ शल्य तथा युद्धमें इन्द्रके समान पराक्रमी एवं बलवानोंमें अग्रगण्य द्रोणाचार्यको युद्धमें परास्त किये बिना तुम यहाँ राज्य कैसे लेना चाहते हो। कुन्तीपुत्र !आचार्य द्रोण ब्रह्मवेद और धनुर्वेद इन दोनों के पारंगत पण्डित हैं । ये युद्धका भार वहन करनेमें समर्थ, अक्षोभ्य, सेनाके मध्यभागमें विचरनेवाले तथा युद्धके मैदानसे पीछे न हटनेवाले हैं। इन महातेजस्वी द्रोणको जो तुम जीतने की इच्छा रखते हो, वह मिथ्या साहसमात्र है। वायुने सुमेरू पर्वतको उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमार सुननेमें नहीं आया है ( इसी प्रकार तुम्हारे लिये भी आचार्य को जीतना असम्भव है)। तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, वह यदि सत्य हो जाय, तब तो हवा मंरूको उडा ले, स्वर्गलोक इस पृथ्वीपर गिर पडे अथवा युग ही बदल जाय। अर्जुन हो या दूसरा कोई, जीवनकी इच्छा रखनेवाला कौन ऐसा वीर है, जो युद्धमें इन शत्रुदमन आचार्यके पास पहुँचकर कुशलपूर्वक घरको लौट सके। ये दोनों द्रोण और भीष्म जिसे मारनेको निश्चय कर लें अथवा उनके भयानक अस्त्र आदिसे जिसके शरीरका स्पर्श हो जाय, ऐसा कोई भी भूतलनिवासी मरणधर्मा मनुष्य युद्धमें जीवित कैसे बच सकता है। जैसे देवता स्वर्गकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओंके नरेश तथा काम्बोज, शक, खश, शाल्व, मत्स्य, कुरू और मध्यप्रदेशके सैनिक एवं मलेच्छ, पुलिन्द, द्रविद, आन्ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेनाकी रक्षा करते हैं, जो देवताओंकी सेनाके समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराजकी (समुद्रतुल्य) उस सेनाको क्या तुम कूपमण्डूककी भाँति अच्छी तरह समझ नहीं पाते हैं।
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