महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 161 श्लोक 1-23
एकषष्टयधिकशततम (161) अध्याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)
पाण्डवोंके शिविरमें पहुँचकर उलूकका भरी सभामें दुर्योधनका संदेश सुनाना
संजय कहते हैं- राजन् ! तदन्तर जुआरी शकुनिका पुत्र उलूक पाण्डवोंकी छावनीमें जाकर उनसे मिला और युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोला-राजन् ! आप दूतके वचनोंका मर्म जाननेवाले हैं। दुर्योधनने जो संदेश दिया है, उसे मैं ज्यों-का-त्यों दोहरा दूंगा। उसे सुनकर आपको मुझ पर क्रोध नहीं करना चाहिये। युधिष्ठिर ने कहा—उलूक ! तुम्हें (तनिक भी) भय नहीं है। तुम निश्चिन्त होकर लोभी और अदूरदर्शी दुर्योधनका अभिप्राय सुनाओ। (संजय कहते हैं-) तब वहाँ बैठे हुए तेजस्वी महात्मा पाण्डवों, सृजयों, मत्स्यों, यशस्वी श्रीकृष्ण तथा पुत्रोंसहित द्रुपद और विराटके समीप समस्त राजाओंके बीचमें उलूकने यह बात कही। उलूक बोला- महाराज युधिष्ठिर ! महामना धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने कौरववीरोंके समक्ष आपको यह संदेश कहलाया है, इसे सुनिये। तुम जुएमें हारे और तुम्हारी पत्नी द्रौपदीको सभा में लाया गया । इस दशामें अपनेको पुरूष माननेवाला प्रत्येक मनुष्य क्रोध कर सकता है। बारह वर्षोंतक तुम राज्यसे निर्वासित होकर बनमें रहे और एक वर्षतक तुम्हें राजा विराटका दास बनकर रहना पडा। पाण्डुनन्दन ! तुम अपने अमर्षको, राज्यके अपहरणको, वनवासको और द्रौपदीको दिये गये क्लेशको भी याद करके मर्द बनो। पाण्डुपुत्र ! तुम्हारे भाई भीमसेनने उस समय कुछ करनेमें असमर्थ होनेके कारण जो दुर्वचन कहा था, उसे याद करके वे आवें और यदि शक्ति हो, तो दु:शासन का रक्त पीयें। लोहे के अस्त्र-शस्त्र को बाहर निकालकर उन्हें तैयार करने आदिका कार्य पूरा हो गया है, कुरूक्षेत्रकी कीचड़ सूख गयी है, मार्ग बराबर हो गया है और तुम्हारे अश्व भी खूब पले हुए है; अत: कल सवेरेसे ही श्रीकृष्णके साथ आकर युद्ध करो। युद्धक्षेत्र में भीष्म का सामना किये बिना ही तुम क्यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो कुन्तीनन्दन ! जैसे कोई अशक्त एवं मन्दबुद्धि पुरूष गन्धमादन पर्वतपर चढनेकी इच्छा करे, उसी प्रकार तुम भी अपने बारे में बडी-बडी बातें किया करते हो। बातें न बनाओ; पुरूष बनो (पुरूषत्वका परिचय दो )। पार्थ ! अत्यन्त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानोंमें श्रेष्ठ शल्य तथा युद्धमें शचीपति इन्द्रके पराक्रमी महाबली द्रोणको युद्धमें जीते बिना तुम यहाँराज्य कैसे लेना चाहते हो। आचार्य द्रोण ब्राह्मदेव और धनुर्वेद दोनोंके पारंगत पण्डित हैं। वे युद्धका मार वहन करनेमें समर्थ समर्थ, अक्षोभ्य, सेनाके मध्यमें विचरनेवाले तथा संग्रामभूमियों कभी पीछे न हटने वाले है। पार्थ !तुम उन्हीं महातेजस्वी द्रोणको जो जीतनेकी इच्छा करते हो, वह व्यर्थ दु:साहसमात्र है। वायुने कभी सुमेरू पर्वतको उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमारे सुननेमें नहीं आया। तुम जैसा मुझसे कहते हो, वैसा ही यदि सम्भव हो जाय, तब तो वायु भी सुमेरू पर्वतको उठा ले, स्वर्गलोक पृथ्वीपर गिर पडे़ अथवा युग ही बदल गया। जीवित रहनेकी इच्छावाला कौन ऐसा हाथी सवार, घुडसवार अथवा रथी है, जो इन शत्रुमर्दन द्रोणसे भिड़कर कुशलपूर्वक अपने घरको लौट सके। भीष्म और द्रोणने जिसे मारनेकी निश्चय कर लिया हो अथवा जो युद्धमें इनके भंयकर अस्त्रोंसे छू गया हो, ऐसा कौन भूतलनिवासी जीवित बच सकता है। जैसे देवता स्वर्गकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और दिशाओंके नरेश तथा काम्बोज, शक, खश, शाल्व, मत्स्य, कुरू और मध्यप्रदेशके सैनिक एवं मलेच्छ, पुलिन्द, द्रविड, आन्ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेनाकी रक्षा करते हैं, जो देवताओंकी सेना के समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराजकी उस (समुद्रतुल्य) सेनाको क्या तुम कूपमण्डूककी भांति अच्छी तरह समझ नहीं पाते । अल्पबुद्धि मूढ युधिष्ठिर मूढ युधिष्ठिर ! जिसका वेग युद्धकालमें गंगाके वेगके समान बढ जाता है और जिसे पार करना असम्भव है, नाना प्रकारके जनसमुदाय से भरी हुई मेरी उस विशाल वाहिनीके साथ तथा गजसेनाके बीचमें खडे़ हुए मुझ दुर्योधन के साथ भी तुम युद्ध की इच्छा कैसे रखते हो । धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर उलूक अर्जुनकी ओर मुड़ा और तत्पश्चात् उनसे भी इस प्रकार कहने लगा-।
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