महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 26-50
द्विषष्टयधिकशततम (162) अध्याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)
वरूणालय समुद्र शीघ्र ही अपनी सीमाका उल्लंघन कर जाये और पर्वत जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर जायें, परंतु मेरी कही हुई बात झूठी नहीं हो सकती। दुर्बुद्धे ! तेरी सहायताके लिये यमराज, कुबेर अथवा भगवान रूद्र ही क्यों न आ जाये, पाण्डव अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार सब कार्य अवश्य करेंगे। मैं अपनी इच्छाके अनुसार दु:शासन का रक्त अवश्य पीऊँगा। उस समय साक्षात भीष्मको भी आगे करके जो कोई भी क्षत्रिय क्रोधपूर्वक मेरे ऊपर धावा करेगा, उसे उसी क्षण यमलोक पहुँचा दूँगा । मैंने क्षत्रियोंकी सभामें यह बात कही है, जो अवश्य सत्य होगी। यह मैं अपनी सौगन्ध खाकर कहता हूं। भीमसेनका वचन सुनकर सहदेवका भी अमर्ष जाग उठा। तब उन्होंने भी क्रोधसे आँखे लाल करके यह बात कही-ओ पापी ! मैं इन वीर सैनिकोंकी सभामें गर्वीले शूरवीरके योग्य वचन बोल रहा हूं। तू इसे सुन ले और अपने पिताके पास जाकर सुना दे। यदि धृतराष्ट्र तेरे साथ सम्बन्ध न होता, तो कभी कौरवोंके साथ हमलोगोंकी फूट नहीं होती। तू सम्पूर्ण जगत तथा धृतराष्ट्रकुलके विनाशके लिये पापाचारी मूर्तिमान वैरपुरूष होकर उत्पन्न हुआ है। तू अपने कुलका भी नाश करनेवाला है। उलूक !तेरा पापात्मा पिताजन्मसे ही हमलोगोंके प्रति प्रतिदिन क्रूरतापूर्ण अहितकर बर्ताव करना चाहता है। इसलिये मैं शकुनिमे देखते देखते सबसे पहले तेरा वध करके सम्पूर्ण धनुर्धरोंके सामने शकुनिको भी मार डालूँगा और इस प्रकार अत्यन्त दुर्गम शत्रुतासे पार हो जाऊँगा। भीमसेन और सहदेव दोनोंके वचन सुनकर अर्जुनने भीमसेनसे मुस्कराते हुए कहा—आर्य भीम ! जिनका आपके साथ वैर ठन गया है, वे घरमें बैठकर सुखका अनुभव करनेवाले मूर्ख कौरव कालके पाशमें बँध गये हैं (अर्थात उनका जीवन नहींके बराबर है)।
पुरूषोत्तम ! आपको इस उलूकसे कोई कठोर बात नहीं कहनी चाहिये। बेचारे दूतोंका क्या अपराध है। भयंकर पराक्रमी भीमसेनसे ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धृष्टद्युम्न वीर सुह्रदोंसे कहा-बन्धुओं ! आपलोगोंने उस पापी दुर्योधनकी बात सुनी है न इसमें उसके द्वारा विशेषत: मेरी और भगवान श्रीकृष्णकी निन्दा की गयी है। आपलोग हमारे हितकी कामना रखते हैं, इसलिये इस निन्दा को सुनकर कुपित हो उठे हैं। परंतु भगवान वासुदेवके प्रभाव और आपलोगोंके प्रयत्न से मैं इस समस्त भूमण्डलके सम्पूर्ण क्षत्रियोंको भी कुछ नहीं गिनता हूँ। यदि आपलोगों की आज्ञा हो तो मैं इस बातका उत्तर उलूककोदे दूँ, जिसे यह दुर्योधनको सुना देगा। अथवा आपकी सम्मति हो, तो कल सवेरे सेनाके मुहानेपर उसकी इन शेखीभरी बातोंका ठीक-ठीक उत्तर गाण्डीव धनुषद्वारा दे दूँगा; क्योंकि केवल बातोंमें उत्तर देनेवाले तो नपुंसक होते हैं। अर्जुनकी इस प्रवचन शैलीसे सभी श्रेष्ठ भूपाल आश्चर्य चकित हो उठे और वे सबके सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तदन्तर धर्मराजने उन समस्त राजाओंको उनकी अवस्था और प्रतिष्ठा के अनुसार अनुनय-विनय करके शान्त किया और दुर्योधनको देने योग्य जो संदेश था, उसे इस प्रकार कहा-उलूक! कोई भी श्रेष्ठ राजा शान्त रहकर अपनी अवज्ञा सहन नहीं कर सकता। मैंने तुम्हारी बात ध्यान देकर सुनी है। अब मैं तुम्हें उत्तर देता हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्ठ जनमेजय ! इस प्रकार युधिष्ठिरने उलूकसे पहले मधुर वचन बोलकर फिर ओजस्वी शब्दोंमें उत्तर दिया। (उलूकके मुखसे) पहले दुर्योधनके पूर्वोक्त संदेशको सुनकर द्वारा देखते हुए विषधर सर्पके समान उच्छवास लेने लगे। फिर ओठोंके दोनों कोनोंको चाटते हुए वे श्रीकृष्ण तथा विशाल भुजा ऊपर उठा धूर्त जुआरी शकुनिके पुत्र उलूकसे मुस्कराते हुए से बोले-।
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