महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 175 श्लोक 1-18

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पञ्चसप्तत्यधिकशततम (175) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

अम्बाका शाल्व के यहां जाना और उससे परित्य‍क्त होकर तापसों के आश्रम में आना, वहां शैखावत्य और अम्बाका संवाद

भीष्‍मजी कहते हैं- नरेश्‍वर! तब मैंने माता गन्धवी काली से आज्ञा ले मन्त्रियों, ॠत्विजों तथा पुरोहितों से पूछकर बड़ी राजकुमारी अम्बाको जाने की आज्ञा दे दी ।आज्ञा पाकर राजकन्या अम्बा वृद्ध ब्राह्मणों के संरक्षण में रहकर शाल्वराज के नगर की ओर गयी। उसके साथ उसकी धाय भी थी। उस मार्ग को लांघकर वह राजा के यहां पहुंच गयी और शाल्वराज से मिलकर इस प्रकार बोली- ‘महाबाहो! महामते! मैं तुम्हारे पास ही आयी हूं ।‘राजन्! मैं सदा तुम्हारे प्रिय और हित में तत्पर रहने वाली हूं। मुझे अपनाकर आनन्दित करो। नरेश्‍वर! मुझे धर्मानुसार ग्रहण करके धर्म के लिये ही अपने चरणों में स्थान दो। मैंने मन-ही-मन सदा तुम्हारा ही चिन्तन किया है और तुमने भी एकान्त में मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव किया था’ ।। प्रजानाथ! अम्बा की बात सुनकर शाल्वराज ने मुसकराते हुए-से कहा- ‘सुन्दरी! तुम पहले दूसरे की हो चुकी हो; अत: तुम्हारी-जैसी स्त्री के साथ विवाह करने की मेरी इच्छा नहीं हैं । ‘भद्रे! तुम पुन: वहां भीष्‍म के ही पास जाओ। भीष्‍म ने तुम्हें बलपूर्वक पकड़ लिया था, अत: अब तुम्हें मैं अपनी पत्नी बनाना नहीं चाहता ।‘भीष्‍म ने उस महायुद्ध में समस्त भूपालों को हराकर तुम्हें जीता और तुम्हें उठाकर वे अपने साथ ले गये। तुम उस समय उनके साथ प्रसन्न थीं ।‘वरवर्णिनि! जो पहले और की हो चुकी हो, ऐसी स्त्री को मैं अपनी पत्नी बनाऊं, यह मेरी इच्छा नहीं है। जिस नारी पर पहले किसी दूसरे पुरूष का अधिकार हो गया हो, उसे सारी बातों को ठीक-ठीक जानने वाला मेरे-जैसा राजा जो दूसरों को धर्म का उपदेश करता है, कैसे अपने घर में प्रविष्‍ट करायेगा। भद्रे! तुम्हारी जहां इच्छा हो, चली जाओ। तुम्हारा यह समय यहां व्यर्थ न बीते’ । राजन्! यह सुनकर कामदेव के बाणों से पीड़ित हुई अम्बा शाल्वराज से बोली- ‘भूपाल! तुम किसी तरह भी ऐसी बात मुंह से न निकालो। शत्रुसूदन! मैं भीष्‍म के साथ प्रसन्नतापूर्वक नहीं गयी थीं। उन्होंने समस्त राजाओं को खदेड़कर बलपूर्वक मेरा अपहरण किया था और मैं रोती हुई ही उनके साथ गयी थी । ‘शाल्वराज! मैं निरपराध अबला हूं। तुम्हारे प्रति अनुरक्त हूं। मुझे स्वीकार करो; क्योंकि भक्तों का परित्याग किसी भी धर्म में अच्छा नहीं बताया गया है ।‘युद्धमें कभी पीठ न दिखाने वाले गङ्गानन्दन भीष्‍म से पूछकर, उनकी आज्ञा लेकर अत्यन्त उत्कण्‍ठा के साथ मैं यहां आयी हुं । ‘राजन्! महाबाहु भीष्‍म मुझे नहीं चाहते। उनका यह आयोजन अपने भाई के विवाह के लिये था, ऐसा मैंने सुना हैं । ‘नरेश्‍वर! भीष्‍म जिन मेरी दो बहिनों-अम्बिका और अम्बालिका को हरकर ले गये थे, उन्हें उन्होंने अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य को ब्याह दिया हैं । ‘पुरूषसिंह शाल्वराज! मैं अपना मस्तक छूकर कहती हूं; तुम्हारे सिवा दूसरे किसी वर का मैं किसी प्रकार भी चिन्तन नहीं करती हूं ‘राजेन्द्र शाल्व! मुझ पर किसी भी दूसरे पुरूष का पहले कभी अधिकार नहीं रहा है। मैं स्वेच्छापूर्वक पहले-पहल तुम्हारी ही सेवा में उपस्थित हुई हुं। यह मैं सत्य कहती हूं और इस सत्य के द्वारा ही इस शरीर की शपथ खाती हुं ।‘विशाल नेत्रों वाले महाराज! मैंने आज से पहले किसी दूसरे पुरूष को अपना पति नहीं समझा हैं। मैं तुम्हारी कृपा की अभिलाषा रखती हूं। स्वयं ही अपनी सेवा में उपस्थित हुई मुझ कुमारी कन्या को धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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