महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 29 श्लोक 47-58

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एकोनत्रिंश (29) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 47-58 का हिन्दी अनुवाद

संजय! (कहां तक गिनाऊं,) जूए के समय जितने और जैसे निन्‍दनीय वचन कहे गये थे, वे सब तुम्‍हें ज्ञात हैं, तथापि इस बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिये मैं स्‍वयं हस्तिनापुर चलना चाहता हूं। यदि पाण्‍डवों का स्‍वार्थ नष्‍ट किये बिना ही मैं कौरवों के साथ इनकी संधि कराने में सफल हो सका हो मेरे द्वारा यह परम पवित्र और महान् अभ्‍युदय का कार्य सम्‍पन्‍न हो जायगा तथा कौरव भी मौत के फंदे से छूट जायंगे। मैं वहां जाकर शुक्रनीति के अनुसार धर्म और अर्थ से युक्‍त ऐसी बातें कहूंगा, जो हिंसावृत्ति को दबाने वाली होंगी। क्‍या धृतराष्‍ट्र के पुत्र मेरी उन बातों पर विचार करेंगे? क्‍या कौरवगण अपने सामने उपस्थित होने पर मेरा सम्‍मान करेंगे? संजय! यदि ऐसा नहीं हुआ-कौरवों ने इसके विपरीत भाव दिखाया तो समझ लो कि रथपर बैठे हुए अर्जुन और युद्ध के लिये कवच धारण करके तैयार हुए भीमसेन के द्वारा पराजित होकर धृतराष्‍ट्र वे सभी पापात्‍मा पुत्र अपने ही कर्मदोष से दग्‍ध हो जायंगे। द्यूत के समय जब पाण्‍डव हार गये थे, तब दुर्योधन ने उनके प्रति बड़ी भयानक और कड़वी बातें कही थीं; अत: सदा सावधान रहनेवाले भीमसेन युद्ध के समय गदा हाथ में लेकर दुर्योधन को उन बातें की याद दिलायेंगे। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है, कर्ण उस वृक्ष का स्‍कन्‍ध, शकुनि शाखा और दु:शासन समृद्ध फल-पुष्‍प है। अज्ञानी राजा धृतराष्‍ट्र ही इसके मूल (जड़) हैं। युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन (उस वृक्ष के) स्‍कन्‍ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनंदन नकुल-सहदेव इसके समृद्ध फल-पुष्‍प हैं। मैं, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं। संजय! पुत्रोंसहित राजा घृतराष्‍ट्र एक वन हैं और पाण्‍डव उस वन में निवास करने वाले व्‍याघ्र हैं। सिंहों से रक्षित वन नष्‍ट नहीं होता एवं वन में रहकर सुरक्षित सिंह नष्‍ट नहीं होता उस वन का उच्‍छेद न करो। क्‍योंकि वन से बाहर निकला हुआ व्‍याघ्र मारा जाता है और बिना व्‍याघ्र के वन को सब लोग आसानी से काट लेते हैं। अत: व्‍याघ्र वन की रक्षा करे और वन व्‍याघ्र की। संजय! धृतराष्‍ट्र के पुत्र लताओं के समान हैं और पाण्‍डव शाल-वृक्षों के समान। कोई भी लता किसी महान् वृक्ष का आश्रय लिये बिना कभी नहीं बढ़ती है (अत: पाण्‍डवों का आश्रय लेकर ही धृतराष्‍ट्रपुत्र बढ़ सकते हैं)। शत्रुओं का दमन करने वाले कुंतीपुत्र धृतराष्‍ट्र की सेवा करने के लिये भी उद्यत हैं और युद्ध के लिये भी। अब राजा धृतराष्‍ट्र का जो कर्तव्‍य हो, उसका पालन करें। विद्वान् संजय! धर्म का आचरण करने वाले महात्‍मा पाण्‍डव शांति के लिये भी तैयार हैं और युद्ध करने में भी समर्थ हैं। इन दोनों अवस्‍थाओं को समझकर तुम राजा धृतराष्‍ट्र से यथार्थ बातें कहना।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत संजययानपर्व में श्रीकृष्‍णवाक्‍यसंबंधी उनतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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