महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 48 श्लोक 41-67
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: कर्ण पर्व
सात्युकि ने लोहे के बने हुए सात बाणों से वृषसेन को घायल करके फिर सत्तर बाणों द्वारा गहरी चोट पहुंचायी। साथ ही तीन बाणों से उसके सारथि को भी बींध डाला।। महाराज। वृषसेन ने झुकी हुई गांठवाले बाण से महारथी सात्यककि के कपाल में आघात किया।। महाराज। वृषसेन के उस बाण से अत्यसन्तत पीडित होने पर वीर सात्यककि को बड़ा क्रोध हुआ। क्रुद्ध होने पर उन्होंाने भयंकर वेग प्रकट किया और शीघ्र ही पंद्रह श्रेष्ठ बाण हाथ में ले लिये ।। उनमें से तीन बाणों द्वारा सात्यभकि ने वृषसेन के सारथि को मारकर एक से उसका धनुष काट दिया और सात बाणों से उसके घोड़ों को मार डाला। फिर एक बाण से उसके ध्वनजा को खण्डित करके तीन बाणों से वृषसेन की छाती में भी चोट पहुंचायी । इस प्रकार रणक्षैत्र में युयुधान के द्वारा सारथि, अश्व एवं रथी की ध्व।जा से रहित किया हुआ वृषसेन दो घड़ी तक अपने रथ पर शिथिल-सा होकर बैठा रहा। फिर उठकर सात्ययकि को मार डालने की इच्छाथ से ढाल और तलवार लेकर उनकी ओर बढ़ा। इस प्रकार आक्रमण करते हुए वृषसेन की तलवार और ढाल को सात्यढकिने नाराहकर्ण नामक दस बाणों द्वारा शीघ्र ही खण्डित कर दिया। तब दु:शासन ने वृषसेन को रथ और अस्त्रं-शस्त्रों से हीन हुआ देख उसे रण से व्यानकुल हुआ मानकर तुरंत ही अपने रथ पर बिठा लिया और वहां से दूर हटा दिया। तदनन्तउर महारथी वृषसेन ने दूसरे रथ पर बैठकर तिहत्तर बाणों से द्रौपदी के पुत्रों को, पांच से युयुधान को, चौंसठ से भीमसेन को, पांच से सहदेव को, तीस बाणों से नकुल को, सात से शतानीक को, दस बाणों से शिखण्डीर को और बाणों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को घायल कर दिया। राजेन्द्री। प्रजानाथ। महा धनुर्धर कर्णपुत्र ने विजय की अभिलाषा रखने वाले इन सभी प्रमुख वीरों को तथा दूसरों को भी अपने बाणों से पीडित कर दिया। तत्पवश्चात् वह दुर्धर्ष वीर युद्धस्थजल में पुन: कर्ण के पृष्ठअभाग की रक्षा करने लगा । सात्ययकिने लोहे के बने हुए नौ नूतन बाणों से दु:शासन को सारथि, घोड़ों और रथ से वच्चित करके असके ललाट में तीन बाण मारे। दु:शासन विधिपूर्वक सजाये हुए दूसरे रथ पर बैठकर कर्ण के बल को बढ़ाता हुआ पुन: पाण्डावों के साथ युद्ध करने लगा। तदनन्तकर धृष्ट द्युम्र ने कर्ण को दस बाणों से बींध डाला। फिर द्रौपदी के पुत्रों ने तिहत्तर, सात्य1किने सात, भीमसेन चौंसठ, सहदेवने सात, नकुलने तीस, शतानीकने सात, शिखण्डी। ने दस और वीर धर्मराज युधिष्ठिर ने सौ बाण कर्ण को मारे। राजेन्द्र । विजय की अभिलाषा रखने वाले इन प्रमुख वीरों तथा दूसरों ने भी उस महासमर में महाधनुर्धर सूतपुत्र कर्ण को बाणों द्वारा पीडित कर दिया । रथ से विचरने वाले शत्रुदमन वीर सूतपुत्र कर्ण ने भी उन सबको दस-दस बाणों से घायल कर दिया ।
महाभाग। हमने महामना कर्ण के अस्त्रद बल और फुर्ती को वहां अपनी आंखों देखा था। वह सब कुछ अभ्दुमत सा प्रतीत होता था । वह कब तरकस से बाण निकालता है, कब धनुष पर रखता है और कब क्रोध पूर्वक शत्रुओं पर छोड़ देता है, यह सब किसी ने नहीं देखा। सब लोग मारे जाते हुए शत्रुओं को ही देखते थे । राजेन्द्र । हमलोग एक ही क्षण में कर्ण को पश्चिम दिशा में देखकर उसकी फुर्ती के कारण उसे पूर्व दिशा में भी देखते थे। इस समय कर्ण कहां खड़ा है, यह हम लोग नहीं देख पाते थे।। राजन्। सब ओर बिखरे हुए उसके बाण ही हमें दिखायी देते थे, जो टिड्डीदलों के समान सम्पूबर्ण दिशाओं को आच्छा्दित किये रहते थे।। द्युलोक, आकाश, भूमि और सम्पूलर्ण दिशाएं पैने बाणों से खचाखच भर गयीं थी। उस प्रदेश में आकाश अरुण रंग के बादलों से ढका हुआ सा जान पड़ता था। प्रतापी राधापुत्र कर्ण हाथ में धनुष लेकर नृत्यस सा कर रहा था। जिन जिन योद्धाओं ने उसे एक बाण से घायल किया, उनमें से प्रत्येक को उसने तीन गुने बाणों से बींध डाला। फिर दस-दस बाणों से घोड़ों, सारथि, रथ और छत्रोंसहित इन सबको घायल करके कर्ण ने सिंह के समान दहाड़ना आरम्भो किया। फिर तो उन शत्रुओं ने उसे आगे बढ़ने के लिये जगह दे दी। शत्रुओं का संहार करने वाले राधापुत्र कर्ण ने अपने बाणों की वर्षा द्वारा उन महाधनुर्धरों को रौंदकर राजा युधिष्ठिर की सेना में बेरोक-टोक प्रवेश किया । उसने युद्ध से पीछे न हटने वाले तीन सौ चेदिदेशीय रथियों को अपने पैने बाणों द्वारा मारकर युधिष्ठिर पर आक्रमण किया। राजन्। तब पाण्ड वों, शिखण्डी और सात्य्किने राधापुत्र कर्ण के राजा युधिष्ठिर की रक्षा करने के लिये उन्हेंत चारों ओर से घेर लिया ।।64।। इसी प्रकार आपके सभी महाधनुर्धर शूरवीर योद्धा रण में अनिवार्य गति से विचरनेवाले कर्ण की सब ओर से प्रयत्न पूर्वक रक्षा करने लगे। प्रजानाथ। उस समय नाना प्रकार के रणवाद्यों की ध्वपनि होने लगी और अब ओर से गर्जना करने वाले शूरवीरों का सिंहनाद सुनायी देने लगा।। तदनन्र पुन: कौरव और पाण्ड व योद्धा निर्भय होकर एक दूसरे भिड़ गये। एक ओर युधिष्ठिर आदि कुन्तीओपुत्र थे और दूसरी और कर्ण आदि हम लोग ।
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