महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 49 श्लोक 70-92
एकोनपञ्चाशत्तम (49) अध्याय: कर्ण पर्व
कितने ही घायल नरेश पताका, ध्वज, छत्र, अश्व, सारथि, आयुध, शरीर तथा उसके अवयवों से रहित हो रणभूमि में गिर पड़े । जैसे पर्वतों के शिखर टूटकर निम्नय देश से लूढंकते हुए नीचे गिर पड़ते हैं तथा जैसे वज्र से विदीर्ण किये हुए पर्वत धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वहां मारे गये हाथी अपने सवारों सहित पृथ्वीए पर गिर पड़े। टूटे-फूटे और अस्तस-व्यतस्तव हुए कवच, अलंकार एवं आभूषणों सहित सहस्त्रों घोड़े अपने बहादुर सवारों के मारे जाने पर उनके साथ ही गिर पड़ते थे । उस संघर्ष में विपक्षी वीरों, हाथियों, घोड़ों तथा रथों द्वारा मारे गये सहस्त्रों पैदल योद्धाओं के समुदाय रणभूमि में सो होकर बिखर गये थे। युद्धकुशल वीरों के विशाल, विस्तृपत एवं लाल-लाल आंखों और कमल तथा चन्द्रयमा के समान मुखवाले मस्तशकों से सारी युद्धभूमि सब ओर से ढक गयी थी। भूतल पर जैसा कोलाहल हो रहा था, वैसा ही आकाश में भी लोगों को सुनायी देता था। वहां विमानों पर बैठी हुई झुंड की झुंड अप्स राएं गीत और वाद्यों की मधुर ध्वनि फैला रही थी। वीरों के द्वारा सम्मुझख लड़कर मारे गये लाखों वीरों को अप्स्राएं विमानों पर बिठा बिठाकर स्वबर्ग लोक में ले जाती थीं। यह माहन् आश्चर्य की बात प्रत्यसक्ष देखकर हर्ष और उत्साबह में भरे हुए शूरवीर स्वीर्ग की लिप्सा से एक दूसरे को शीघ्रता पूर्वक मारने लगे। युद्धस्थईल में रथियों के साथ रथी, पैदलों के साथ पैदल, हाथियों के साथ हाथी और घोड़ों के साथ घोड़े विचित्र युद्ध करते थे। इस प्रकार हाथी, घोड़ों और मनुष्यों का संहार करने वाले उस संग्राम के आरम्भ होने पर सैनिकों द्वारा उड़ायी हुई धूल से वहां का सारा प्रदेश आच्छा्दित हो जाने पर अपने और शत्रु पक्ष के योद्धा अपने ही पक्षवालों का संहार करने लगे ।
दोनों दलों के सैनिक एक दूसरे के केश पकड़कर खींचते, दांतों से काटते, नखों से बखोटते, मुक्कोंं से मारते और परस्पार मल्लेयुद्ध करने लगते थे। इस प्रकार वह युद्ध सैनिकों के शरीर, प्राण और पापों का विनाश करने वाला हो रहा था। हाथी, घोड़े और मनुष्यों का विनाश करने वाला वह संग्राम उसी रुप में चलने लगा। मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों के शरीरों से खून की नदी बह चली, जो अपने भीतर पड़े हुए हाथी, घोड़े और मनुष्यों की बहुसंख्येक लाशों को बहाये जा रही थी। मनुष्य, घोड़े और हाथियों से भरे हुए युद्धस्थषल में मनुष्य, अश्व, हाथी और सवारों के रक्त ही उस नदी के जल थे। उनका मांस और गाढ़ा खून उस नदी की कीचड़ के समान जान पड़ता था। मनुष्य , घोड़े और हाथियों के शरीरों को बहाती हुई वह महाभयंकर नदी भीरु मनुष्यों को भयभीत कर रही थी। विजय की अभिलाषा रखने वाले कितने ही वीर जहां थोड़ा रक्तमय जल था वहां तैरकर और जहां अथाह था, वहां गोते लगा-लगाकर उसके दूसरे पार पहुंच जाते थे। उन सबके शरीर रक्त से रंग गये थे। कवच, आयुध और वस्त्र भी रक्तरंजित हो गये थे। भरतश्रेष्ठ। कितने ही योद्धा उसमें नहा लेते, कितनों के मुंही में रक्त की घूंट चली जाती और कितने ही ग्लाेनि से भर जाते थे। मारे गये तथा मारे जाते हुए हाथी, घोड़े, रथ मनुष्यक, अस्त्रर–शस्त्र , आभूषण, वस्त्र , कवच, पृथ्वीा, आकाश, द्युलोक और सम्पूर्ण दिशाएं-ये सब हमें प्राय: लाल ही लाल दिखायी देते थे ।
भारत। सब ओर फैली और बढ़ी हुई उस रक्त-राशि की गन्धण से, स्पअर्श, रस से, रुप से और शब्द से भी प्राय: सारी सेना मन में बड़ा विषाद हो रहा था। भीमसेन तथा सात्य्कि आदि वीरों ने विशेष रुप से विनष्ट हुई उस कौरव सेना पर पुन: वेग से आक्रमण किया। राजन्। उन आक्रमणकारी वीरों के असह्य वेग को देखकर आपके पुत्रों की विशाल सेना युद्ध से विमुख होकर भाग चली। जैसे जंगल में सिंह से पीडित हुआ हाथियों का यूथ व्यािकुल होकर भागता है, उसी प्रकार शत्रुओं द्वारा सब ओर से रौंदी जाती हुई मनुष्यों और घोड़ों से परिपूर्ण आपकी विशाल सेना भाग चली। उनके रथ, हाथी और घोड़े तितर बितर हो गये, आवरण और कवच नष्टा हो गये तथा अस्त्रद–शस्त्र और धनुष छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वी पर पड़े थे ।
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