महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 77 श्लोक 36-54

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सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तसप्ततितम अध्याय: श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद

यह देखकर भीमसेन झुकी हुई गाँठवाले बाणों से उस विशाल सेना को विदीर्ण करके उसी प्रकार उस के घेरे से बाहर निकल आये, जैसे कोई-कोई मत्स्य पानी में डाले हुए जाल को छेदकर बाहर निकल जाता है। भारत ! युद्ध से पीछे न हटने वाले दस हजार गजराजों, दो लाख और दो सौ पैदल मनुष्यों, पाँच हजार घोड़ों और सौ रथों को नष्ट करके भीमसेन ने वहाँ रक्त की नदी बहा दी। रक्त ही उस नदी का जल था, रथ भँवर के समान जान पड़ते थे, हाथी रूपी ग्राहों से वह नदी भरी हुई थी , मनुष्य, मत्स्य और घोड़े नाकों के समान जान पड़ते थे, सिर के बाल उस में सेवार और घास के समान थे। कटी हुई भुजाएँ बडे़-बडे़ सर्पों का भ्रम उत्पन्न करती थीं। वह बहुत से रत्नों को बहाये लिये जाती थी। उसके भीतर पड़ी हुई जाँघें ग्राहों के समान जान पड़ती थीं। मज्जा पक्‍का काम देती थी, मस्तक पत्थर के टुकडों के समान वहाँ छा रहे थे, धनुष किनारे उगे हुए कास के समान जान पड़ते थे, बाण ही वहाँ के अंकुर थे, गदा और परिध सर्पों के समान प्रतीत होते थे। छत्र और ध्वज उस में हंस के सदृश दिखायी पड़ते थे । पगड़ी फेन का भ्रम उत्पन्न करती थी । हार कमलवन के समान प्रतीत होते थे।
धरती की धूल तरंगमाला बनकर शोभा दे रही थी योद्धा ग्राह आदि जल जन्तुओं से प्रतीत होते थे । युद्ध स्थल में बहने वाली वह रक्त नदी यमलोक की ओर जा रही थी, वैतरणी के समान वह सदाचारी पुरूषों के लिये सुगमता से पार होने योग्य और कायरों के लिये दुस्तर थी । पुस्षसिंह भीमसेन ने क्षणभर में वैतरणी के समान भयंकर रक्त की नदी बहा दी थी । वह अकृतात्मा पुरूषों के लिये दुस्तर, घोर एवं भीरू पुरूषों का भय बढ़ाने वाली थी। रथियों में श्रेष्ठ पाण्डु नन्दन भीमसेन जिस-जिस ओर घुसते, उसी ओर लाखों योद्धाओं का संहार कर डालते थे। महाराज ! युद्ध स्थल में भीमसेन के द्वारा किये गये ऐसे कर्म को देखकर दुर्योधन ने शकुनि से कहा-मामाजी ! आप संग्राम में महाबली भीमसेन को मार डालिये । यदि इनको जीत लिया गया तो मैं समझूँगा कि पाण्डवों की विशाल सेना ही जीत ली गयी।
महाराज ! तब भाइयों से घिरा हुआ प्रतापी सुबल पुत्र शकुनि महान् युद्ध के लिये उद्यत हो आगे बढ़ा । संग्राम में भयानक पराक्रमी भीमसेन के पास पहुँचकर उस वीर ने उन्हें उसी तरह रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को रोक देती है। राजेन्द्र ! उसके तीखे बाणों से रोके जाते हुए भीमसेन उसी की ओर लौट पड़े ! उस समय शकुनि ने उनकी बायीं पसली और छाती में सोने के पंख वाले और शिला पर तेज किये हुए कई नाराज मारे। महाराज ! कंक और मयूर के पंख वाले वे भयंकर नाराज महामनस्वी पाण्डुपुत्र भीमसेन का कवच छेदकर उनके शरीर में डूब गये। भारत ! तब रणभूमि में अत्यन्त घायल हुए भीमसेन ने कुपित हो शकुनि की ओर एक सुवर्णभूषित बाण चलाया। राजन् ! शत्रुओं को संताप देने वाला महाबली शकुनि सिद्धहस्त था । उसने अपनी ओर आते हुए उस भंयकर बाण के सात टुकड़े कर डाले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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