महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-11
चतुनर्वतितम (94) अध्याय: कर्ण पर्व
शल्य के द्वारा रणभूमि का दिग्दर्षन, कौरव सेना का पलायन और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का शिविर की ओर गमन
संजय कहते हैं- राजन् ! आपके पुत्र द्वारा सेना को पुनः लौटाने का प्रयत्न होता देख उस समय भयभीत और मूढ़चित्त हुए मद्रराज शल्य ने दुर्योधन से इस प्रकार कहा। शल्य बोले- वीर नरेश ! मारे गये मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों की लाशों से भरा हुआ यही युद्धस्थल कैसा भयंकर जान पड़ता है ? पर्वताकार गजराज, जिसके मस्तकों से मद की धारा फूटकर बहती थी, एक ही साथ बाणों की मार से शरीर विदीर्ण हो जाने के कारण धराशायी हो गये हैं। उनमें से कितने ही वेदना से छटपटा रहे हैं, कितनों के प्राण निकल गये हैं। उनपर बैठे हुए सवारों के कवच, अस्त्र-शस्त्र, ढाल और तलवार आदि नष्ट हो गये हैं। इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो वज्र के आघात से बडे़-बडे़ पर्वत ढह गये हों और उनके प्रस्तरखण्ड, विशाल, वृक्ष तथा औषध समूह छिन्न-भिन्न हो गये हों। उन गजराजों के घंटा, अंकुश, तोमर और ध्वज आदि सभी वस्तुएँ बाणों के आघात से टूट-फूटकर बिखर गयी हैं। उन हाथियों के ऊपर सोने की जाली से युक्त आवरण पड़ा है। उनकी लाशें रक्त के प्रवाह से नहा गयी हैं। घोडे़ बाणों से विदीर्ण होकर गिरे हैं, वेदना से व्यथित हो उच्छवास लेते ओर मुख से रक्त वमन करते हैं। वे दीनतापूर्ण आर्तनाद कर रहे हैं। उनकी आँखे घूम रही है। वे धरती में दाँत गड़ाते और करूण चीत्कार करते है। हाथी, घोडे़, पैदल सैनिक तथा वीरसमुदाय बाणों से क्षत-विक्षत हो मरे पडे़ हैं। किन्ही की साँसें कुछ कुछ चल रही हैं और कुछ लोगों के प्राण सर्वथा निकल गये हैं। हाथी, घोडे़, मनुष्य और रथ कुचल दिये गये हैं। इन सबकी कांति मन्द पड़ गयी है।
इसके कारण उस महासमर की भूमि निश्चय ही वैतरणी के समान प्रतीत होती है। हाथियों के शुण्डदण्ड और शरीर छिन्न-भिन्न हो गये हैं। कितने ही हाथी पृथ्वी पर गिरकर काँप रहे हैं, कितनों के दाँत टूट गये हैं ओर वे खून उगलते तथा छटपटाते हुए वेदना ग्रस्त हो करूण स्वर में कराह रहे हैं। बडे़-बडे़ रथों के समूह इस रणभूमि में बादलों के समान छा गये है। उनके पहिये, बाण, जूए और बन्धन कट गये हैं। तरकस, ध्वज और पताकाएँ फेंकी पड़ी हैं; सोने के जाल से आवृत हुए वे रथ बहुत ही क्षतिग्रस्त हो गये हैं।। हाथी, रथ और घोड़ों पर सवार होकर युद्ध करनेवाले यशस्वी योद्धा और पैदल वीर सामने लड़ते हुए शत्रुओं के हाथ से मारे गये हैं। उनके कवच, आभूषण, वस्त्र और आयुध सभी छिन्न-भिन्न होकर बिखर गये हैं। इस प्रकार शांत पडे़ हुए आपके प्राणहीन योद्धाओं से यह पृथ्वी पट गयी है।
बाणों के प्रहार से घायल होकर गिरे हुए सहस्त्रों महाबली योद्धा आकाश से नीचे गिरे हुए अत्यन्त दीप्तिमान एवं निर्मल प्रभा से प्रकाशित ग्रहों के समान दिखायी देते हैं और उनसे ढकी हुई यह भूमि रात के समय उन ग्रहों से व्याप्त हुए आकाश के सदृश सुशोभित होती है। कर्ण और अर्जुन के बाणों से जिनके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो गये हैं, उन मारे गये कौरव-सृंजय वीरों की लाशों से भरी हुई भूमि यज्ञ के स्थापित हुई अग्नियों के द्वारा यज्ञभूमि के समान सुशोभित होती है। उनमें से कितने ही वीरों की चेतना लुप्त हो गयी है और कितने ही पुनः साँस ले रहे हैं।
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