महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 94 श्लोक 27-45
चतुनर्वतितम (94) अध्याय: कर्ण पर्व
राजन् ! अत्यन्त शोभा पाने वाले उस रौद्रमुहुर्त (सायंकाल) में, रूधिर से जिसका स्वरूप छिप गया था, उस भूमि को देखते हुए कौरव सैनिक वहाँ ठहर न सके। वे सब-के-सब देवलोक की यात्रा के लिये उद्यत थे। महाराज ! समस्त कौरव कर्ण के वध से अत्यन्त दुखी हो हा कर्ण! हा कर्ण ! की रट लगाते और लाला सूर्य की ओर देखते हुए बडे़ वेग से शिविर की ओर चले। गाण्डीव धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख वाले और शिला पर तेज किये हुए बाणों से कर्ण का अंग-अंग बिंध गया था। उन बाणों की पाँखें रक्त में डूबी हुई थीं। उनके द्वारा युद्धस्थल में पड़ा हुआ कर्ण मर जाने पर भी अंशुमाली सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान सूर्य खून से भीगे हुए कर्ण के शरीर का किरणों द्वारा स्पर्श करके रक्त के समान ही लालरूप धारणकर मानो स्नान करने की इच्छा से पश्चिम समुद्र की ओर जा रहे थे। इस युद्ध के ही विषय-विचार करते हुए देवताओं तथा ऋषियों के समुदाय वहाँ से प्रस्थित हो अपने-अपने स्थान को चल दिये और इसी विषय का चिन्तन करते हुए अन्य लोग भी सुखपूर्वक अंतरिक्ष अथवा भूतल पर अपने-अपने निवास स्थान को चले गये।
कौरव तथा पाण्डव पक्ष के उन प्रमुख वीर अर्जुन और कर्ण वह अद्भुत तथा प्राणियों के लिये भयंकर युद्ध देखकर सब लोग आश्चर्यचकित हो उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ से चले गये। राधापुत्र कर्ण का कवच बाणों से कट गया था। उसके सारे वस्त्र खून में भीग गये थे और प्राण भी निकल गये थे तो भी उसे शोभा छोड़ नहीं रही थी। वह तपाये हुए सुवर्ण तथा अग्नि और सूर्य के समान कांतिमान् था। उस शूरवीर को देखकर सब प्राणी जीवित-सा समझते थे ।।34।। महाराज ! जैसे सिंह से दूसरे जंगली पशु सदा डरते रहते हैं, उसी प्रकार युद्धस्थल में मारे गये सूतपुत्र से भी समस्त योद्धा भय मानते थे। पुरूषसिंह नरेश ! यह मारा जाने पर भी जीवित-सा दिखता था, महामना कर्ण के शरीर में मरने पर भी कोई विकार नहीं हुआ था। राजन् ! नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित तथा तपाये हुए सुवर्ण का अंगद (बाजूबंद) धारण किये वैकर्तन कर्ण मारा जाकर अंकुरयुक्त वृक्ष के समान पड़ा था। नरव्याघ्र नरेश! उत्तम सुवर्ण के समान कांतिमान् कर्ण प्रज्वलित अग्नि के तुल्य प्रकाशित होता था; परंतु पार्थ के बाणरूपी जल से वह बुझ गया। जैसे प्रज्वलित आग जल को पाकर बुझ जाती है, उसी प्रकार समरांगण में कर्णरूपी अग्नि को अर्जुनरूपी मेंघ ने बुझा दिया।
इस पृथ्वी पर उत्तम युद्ध के द्वारा अपने लिये उत्तम यश का उपार्जन करके, बाणों की झड़ी लगाकर, दसों दिशाओं को संतप्त करके, पुत्रसहित कर्ण अर्जुन के तेज से शांत हो गया। अस्त्र के तेज से सम्पूर्ण पाण्डव और पांचालों को संताप देकर, बाणों की वर्षा के द्वारा शत्रुसेना को तपाकर तथा सहस्त्र किरणों वाले तेजस्वी सूर्य के समान सम्पूर्ण संसार में अपना प्रताप बिखेरकर वैकर्तन कर्ण पुत्र और वाहनोंसहित मारा गया। यायकरूपी पक्षियों के समुदाय के लिये जो कल्पवृक्ष के समान था, वह कर्ण मार गिराया गया। जो माँगने पर सदा ही कहता था कि मैं दूँगा । श्रेष्ठ याचकों के माँगने पर जिसके मुँह से कभी नाही नहीं निकाल, वह धर्मात्मा कर्ण द्वैरथ युद्ध में मारा गया।
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