महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 172 श्लोक 1-21

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द्विसप्तत्यधिकशततम (172) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्विसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध, पाण्डव सेना का पलायन, भीमसेन का सेना को लौटाकर लाना और अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण करना

संजय कहते हैं- प्रजानाथ! अपनी सेना को उन महामनस्वी वीरों की मार खाकर भागती देख आपके पुत्र दुर्योधन को महान क्रोध हुआ। बातचीत की कला जानने वाले दुर्योधन ने सहसा विजयी वीरों में श्रेष्ठ कर्ण और द्रोणाचार्य के पास जाकर अमर्ष के वशीभूत हो इस प्रकार कहा--। ‘सव्यसाची अर्जुन के द्वारा युद्धस्थल में सिंधुराज जयद्रथ को मारा गया देख क्रोध में भरे हुए आप दोनों वीरों ने यहाँ रात के समय इस युद्ध को जारी रक्खा था। ‘परंतु इस समय पाण्डव सेना द्वारा मेरी विशाल वाहिनी का विनाश हो रहा है और आप लोग उसे जीतने में समर्थ होकर भी असमर्थ की भाँति देख रहे हैं। ‘दूसरों को मान देने वाले वीरो! यदि आप लोग मुझे त्याग देना ही उचित समझते थे तो आपको उसी समय मुझसे यह नहीं कहना चाहिये था कि ‘हम लाग पाण्डवों को युद्ध में जीत लेंगे’। ‘उसी समय आप लोगों की सम्मति सुनकर मैं कुन्ती पुत्रों के साथ यह वैर नहीं करता, जो सम्पूर्ण योद्धाआं के लिये विनाशकारी हो रहा है। ‘अत्यन्त पराक्रमी पुरूषप्रवर वीरो! यदि आप मुझे त्याग देना न चाहते हों तो अपने अनुरूप् पराक्रम प्रकट करते हुए युद्ध कीजिये’। इस प्रकार जब आपके पुत्र ने अपने वचनों की चाबुक से उन दोनों वीरों को पीडि़त किया, तब उन्होंने कुचले हुए सर्पों की भाँति कुपित हो पुनः घोर युद्ध आरम्भ किया। सम्पूर्ण लोक में विख्यात धनुर्धर, रथियों में श्रेष्ठ उन द्रोणाचार्य और कर्ण ने रणभूमि में पुनः सात्यकि आदि पाण्डव महारथियों पर धावा किया। इसी प्रकार सम्पूर्ण सेनाओं के साथ संगठित् होकर आये हुए कुन्ती के पुत्र भी बारंबार गर्जने वाले उन दोनों वीरों का सामना करने लगे। तदनन्तर सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर द्रोणाचार्य ने कुपित होकर तुरंत ही इस बाणों से शिनिप्रवर सात्यकि को बींध डाला। फिर कर्ण ने दस, आपके पुत्र ने सात, वृषसेन ने दस औरशकुनि ने भी सात बाण मारे। कुरूराज! इन वीरों ने युद्ध में शिनिपौत्र सात्यकि पर चारों ओर से बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। समरागंण में द्रोणाचार्य को पाण्डव सेना का संहार करते देख सोमकों ने चारों ओर से बाणों की वर्षा करके उन्हें तुरंत घायल कर दिया। प्रजापालक नरेश! जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा चारों ओर के अन्धकार को दूर कर देते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य वहाँ क्षत्रियों के प्राण लेने लगे। प्रजानाथ! द्रोणाचार्य की मार खाकर परस्पर चीखते-चिल्लाते हुए पान्चालों काघोर आर्तनाद सुनायी देने लगा। कोई पुत्रों को, कोई पिताओं को, कोई भाइयों को, कोई मामा,भानजों, मित्रों, सम्बन्धियों तथा बन्धु-बान्धवों को छोड़-छोड़कर अपनी जान बचाने के लिये तुरंत ही भाग चले। कुछ पाण्डव सैनिक रणभूमि में मोहित होकर मोहवश पुनः द्रोणाचार्य के ही सामने चले गये और मारे गये। बहुत से सैनिक परलोक सिधार गये। महामना द्रोणाचार्य से इस प्रकार पीडि़त हुई वह पाण्डव सेना उस रात के समय सहस्त्रों मशालें फेंक-फेंककर भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, नकुल, सहदेव, धर्मपुत्र युधिष्ठिर और धृष्टद्युम्न के सामने ही उने देखते-देखते भाग रही थी। उस समय पाण्डवदल अन्धकार से आच्छन्न हो गया था। किसी को कुछ जान नहीं पड़ता था। कौरवदल में जो प्रकाश हो रहा था, उसी से कुछ भागते हुए सैनिक दिखायी देते थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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