महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 196 श्लोक 37-53

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षण्‍णवत्‍यधिकशततम (196) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षण्‍णवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद

परंतु आपने सत्‍य का चोला पहनकर आचार्य से झूठे ही कह दिया कि अश्‍वत्‍थामा मारा गया । उसी नाम का हाथी मारा गया था, इसलिये आपने उसी आड़ लेकर झूठ कहा। फिर वे हथियार डालकर अपने प्राणों की ममता से रहित हो अचेत हो गये । राजन ! उस समय शक्तिशाली होने पर भी वे कितने व्‍याकुल हो गये थे, यह आपने प्रत्‍यक्ष देखा था। पुत्रवत्‍सल गुरूदेव बेटे के शोक में मग्‍न होकर युद्ध से विमुख हो गये थे । उस अवस्‍था में आपने सनातन-धर्म की अवहेलना करके उन्‍हें शस्‍त्र से मरवा डाला। जिसके पिता मारे गये हैं, वह आचार्य पुत्र अश्‍वत्‍थामा आज कुपित होकर धृष्‍टधुम्न को कालका ग्रास बनाना चाहता है । अस्‍त्र त्‍यागकर निहत्‍थे हुए गुरूदेव को अधर्मपूर्वक मरवाकर अब आप मंत्रियों सहित उसके सामने चाइये और यदि शक्ति हो तो धृष्‍टधुम्र की रक्षा कीजिए। आज हम सब लोग मिलकर भी धृष्‍टधुम्र को नही बचा सकेंगे । जो अश्‍वत्‍थामा अतिमानव (अलौकिक पुरूष) है और समस्‍त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखता है, वही आज अपने पिता के केश पकड़े जाने की बात सुनकर समराजगणों में हम सब लोगों को जलाकर भस्‍म कर देगा। मैं आचार्य के प्राणों की रक्षा चाहता हुआ बारंबार पुकारता ही रह गया, परंतु स्‍वयं शिष्‍य होकर भी धृष्‍टधुम्न ने धर्म को लात मारकर अपने गुरू की हत्‍या कर डाली। अब हम लोगों की आयु का अधिकांश भाग बीत चुका है और बहुत थोड़ा ही शेष रह गया है । इसी में इस समय हमारा मस्तिष्‍क खराब हो गया और हम लागों ने यह महान पाप कर डाला है। जो सदा पिता की भांति हम लोगों पर स्‍नेह रखते और हमारा हित चाहते थे, धर्मदृष्टि से भी जो हमारे पिता के ही तुल्‍य थे, उन्‍हीं गुरूदेव को हमने इस क्षण भंडुर राज्‍य के लिये मरवा दिया। प्रजानाथ ! धृतराष्‍ट्र ने भीष्‍म ओर द्रोण को उनकी सेवामें रहने वाले अपने पुत्रों के साथ ही इस सारी पृथ्‍वी का राज्‍य सौंप दिया गया था। हमारे शत्रु सदा आचार्य का सत्‍कार किया करते थे । उनके द्वारा वैसी उत्‍तम जीविका-वृति पाकर भी आचार्य सदा मुझे ही अपने पुत्र से बढ़कर मानते रहे हैं। उन्‍होनें आपको और मुझेको देखकर युद्ध में हथियार डाल दिया और मारे गये । यदि वे युद्ध करते होते हो साक्षात् इन्‍द्र भी उन्‍हें मार नहीं सकते थे। हमारी बुद्धि लोभ से ग्रस्‍त है, हम नीचों ने राज्‍य के लिये सदा उपकार करने वाले बुढ़े आचार्य के साथ द्रोह किया है ।। ओह ! हमने यह अत्‍यंत भयंकर महान पापकर्म कर डाला है, जो कि राज्‍य-सुख के लोभ में पड़कर इन आचार्य द्रोण की पूर्णत: हत्‍या करा दी। मेरे गुरूदेव ऐसा समझते थे कि अर्जुन मेरे प्रेमवश आवश्‍यकता हो तो अपने पिता, पुत्र, भाई, स्‍त्री तथा प्राण सबका त्‍याग कर सकता है। किंतु मैने राज्‍य के लोभ में पड़कर उनके मारे जाने की उपेक्षा कर दी । राजन ! प्रभो ! इस पाप के कारण अब मैं नीचे सिर करके नर में डाला जाउंगा। एक तो वे ब्राहृाण, दूसरे वृद्ध और तीसरे अपने आचार्य थे । इसके सिवा उन्‍होनें हथियार नीचे डाल दिया था और महान मुनिवृत्ति का आश्रय लेकर बैठे हुए थे । इस अवस्‍था में राज्‍य के लिये उनकी हत्‍या कराकर मैं जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्‍छा समझता हूं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व अर्जुन वाक्‍य विषयक एक सौ छानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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