महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 201 श्लोक 68-77
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एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
जिन्होंने मन से शोक संताप को सर्वथा दूर कर दिया है, वे सदाचारी ब्राहमण पापों का क्षय हो जाने पर जिनका दर्शन कर पाते हैं, यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूपहै, जो साक्षात् धर्म तथा स्तवन करने योग्य परमेश्वर हैं, वे ही महेश्वर वहॉ उनकी तपस्या और भक्ति के प्रभाव से प्रकट हो गये तथा तपस्वी नारायण ने उनका दर्शन किया। उनका दर्शन करके मन, वाणी, बुध्दि और शरीर के साथ ही उनकी अन्तरात्मा हर्ष से खिल उठी। उन भगवान वासुदेव ने बडे आनन्द का अनुभव किया । रूद्राक्ष की माला से विभूषित तथा तेज की परम निधि रूप उन विश्व विधाता का दर्शन करके भगवान नारायण ने उनकी वन्दना की । वे वरदायक प्रभु हष्ट पुष्ट एवं मनोहर अंगोवाली पार्वती देवी के साथ क्रीडा करते हुए पधारे थे। उन अजन्मा, ईशान अव्यक्त, कारणस्वरूप और अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले परमात्मा को उनके पार्षद स्वरूप भूतगणोंने घेर रखा था । कमल नयन भगवान श्रीहरि ने पृथ्वी पर दोनों घुटने टेक कर और मस्तक पर हाथ जोडकर अन्धकासुर का विनाश करने वाले उन रूद्र देव को प्रणाम किया और भक्ति भाव से युक्त हो उन भगवान विरूपाक्ष की वे इस प्रकार स्तुति करने लगे । श्री नारायण बोल – सर्वश्रेष्ठ आदि देव ! जिन्होंने इस पृथ्वी में समाकर आपकी पुरातन दिव्य सृष्टि की रक्षा की थी तथा जो इस विश्व की भी रक्षा करने वो हैं, वे सम्पूर्ण प्राणियोंकी सृष्टि करने वाले प्रजापतिगण भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं । देवता, असुर, नाग, राक्षस, पिशाच, मनुष्य, गरूड आदि पक्षी, गन्धर्व तथा यक्ष आदि जो पृथक पृथक प्राणियों के अखिल समुदाय हैं, उन सबको हम आपसे ही उत्पन्न हुआ मानते हैं। इसी प्रकार इन्द्र, यम, वरूण और कुबेर का पद, पितरोंका लोक तथा विश्वकर्मा की सुन्दर शिल्पकला आदि का आविर्भाव भी आपसे ही हुआ है । शब्द और आकाश, स्पर्श, और वायु, रूप और तेज, रस और जल तथा गन्ध और पृथ्वी की उत्पति भी आपसे ही हुई है। काल, ब्रहमा, वेद, ब्राहमण और तथा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् भी आपसे ही उत्पन्न हुआ है । जैसे जल से उसकी बॅूदें विलग हो जाती हैं और क्षीण होने पर कालक्रम से वे पुनः जल में मिलकर उसके साथ एक रूप हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूत आपसे ही उत्पन्न होते और आप में ही लीन होते हैं। ऐसा जानने वाला विध्दवान पुरूष आपका सायुज्य प्राप्त कर लेते है । अन्तकरणः में निवास करने वाले दो दिव्य एंव अमृत स्वरूप पक्षी ईश्वर और जीव हैं। वेदवाणी ही उन वृक्षों की विविध शाखाऍ हैं। दूसरी भी दस वस्तुऍ हैं, जो पान्चाल भौतिक शरीर रूपी नगर को धारण करती हैं। ये सारे पदार्थ आपके ही रचे हुए हैं, तथापि आप इन सबसे परे हैं । भूत, वर्तमान, भविष्य तथा अजेय काल— ये सब आपके ही स्वरूप है। मैं आपका भजन करने वाला भक्त हॅू, आप मुझे अपनाइये। अहित करने वालों को देखकर मेरी हिंसा न कराइये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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