महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 110 श्लोक 22-42

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दशाधिकशततम (110) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-42 का हिन्दी अनुवाद


वे मनुष्‍यों में व्‍याघ्र के समान पराक्रमी सैनिक महारथी द्रोणाचार्य के पास जाकर कंक और भोर के पंखो से युक्‍त तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। राजन् ! जैसे घर पर आये हुए अतिथियों का जल ओर आसन आदि के द्वारा सत्‍कार किया जाता हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने स्‍वंय उन समस्‍त आक्रमणकारी वीरों की मुसकराते हुए ही अगवानी की। जैसे अतिथि तृप्‍त होते हैं, उसी प्रकार धनुर्धर द्रोणाचार्य केबाणों से उन सबकी यथेष्‍ट तृप्ति की गयी। प्रभो ! जैसे दोपहर के प्रचण्‍ड मार्तण्‍ड की ओर देखना कठिन होता हैं, उसी प्रकार वे समस्‍त योद्धा भरद्वाजनन्‍दन द्रोणाचार्य की ओर देखने में भी समर्थ नहो सके। शस्‍त्रवारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य उन समस्‍त महाधनुर्धरों को अपने बाण समूहों द्वारा उसी प्रकार संलग्‍न करने लगे, जैसे अंशुमाली सूर्य अपनी किरणों से जगत् को संताप देते हैं। महाराज ! उस समय द्रोणाचार्य को मार खाते देख पाण्‍डव और संजय सैनिकों कीचड़ में फंसे हुए हाथियों के समान कोई रक्षक न पा सके। जैसे सुर्य की किरणें सब ओर ताप प्रदान करती हुई फैल जाती हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के विशाल बाण सब ओर फैल से और शत्रुओं को संतप्‍त करते दिखायी देते थे। उस युद्ध में द्रोणाचार्य के द्वारा पाञ्जालों के पचीस सुप्रसिद्ध महारथी मारे गये, जो घृष्‍टद्युम्‍न को बहुत ही प्रिय थे। लोगों ने देखा, पाण्‍डवों और पाञ्जालों की समस्‍त सेनाओं में जो मूख्‍य-मुख्‍य योद्धा थे, उन्‍हें शूरवीर और द्रोणाचार्य चुन-चुन कर मार रहे हैं। महाराज ! सौ केकय-योद्धाओं को मारकर शेष सैनिकों को चारों ओर खदेड़ने के पश्‍चात द्रोणाचार्य मुंह बायें हुए यमराज-के समान खड़े हो गये। नरेश्‍वर ! महाबाहु द्रोणाचार्यने पाञ्जाल, संजय, मत्‍स्‍य और केकयों के सैकड़ों तथा सहस्‍त्रों वीरों को परास्‍त किया। जैसे घोर जंगल में दावानल से व्‍याप्‍त हुए वनवासी जन्‍तुओं को कन्‍दनध्‍वनि सुनायी पड़ती हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य के बाणों से घायल हुए उस विपक्षी योद्धाओं का आर्तनाद वहां श्रवणगोचर होता था। नरेश्‍वर ! उस समय वहां आकाश में खड़े हुए देवता, पितर और सामर्थ्‍य कहते थे, वे पाञ्जाल और पाण्‍डव अपने सैनिकों के साथ भागे जा रहे थे। इस प्रकार समरांगण में सोमकों का वध करते हुए द्रोणाचार्य के सामने न तो कोई जा सके और न कोई उन्‍हें चोट ही पहुंचा सके। बड़े-बड़े वीरों का संहार करनेवाला वह भंयकर संग्राम चल ही रहा था कि सहसा कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर ने पाञ्जजन्‍य-की ध्‍वनि सुनी। भगवान् श्रीकृष्‍ण के फूंकने पर वह महाराज पाञ्जजन्‍य बड़े जोर से अपनी ध्‍वनि का विस्‍तार कर रहा था। सिन्‍ध्‍ुाराज जयद्रथ की रक्षा में नियुक्‍त हुए वीरगण युद्ध में सल्‍लग्‍न थे। अर्जुन के रथ के पास आपके पुत्र और सैनिक गरज रहे थे तथा माण्‍डीव धनुष को टंकार सब ओर से दब गयी थीं। तब पाण्‍डु पुत्र राजा युधिष्ठिर मोह के वशीभुत होकर इस प्रकार चिन्‍ता करने लगे-‘जिस प्रकार शक्‍खराज पाञ्जजन्‍य की ध्‍वनि हो रही है और जिस तरह कौरव-सैनिक बारंबार हर्षनाद कर रहे हैं, उससे जान पड्ता हैं, निश्‍चय ही अर्जुन की कुशल नहीं हैं’। ऐसा विचार कर अजातशत्रु कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर का हदय व्‍याकुल हो उठा। वे चाहते थे कि जयद्रथ वध का कार्य निर्विघ्‍न पूर्ण हो जाय। अत: बारंबार मोहित हो अश्रु-गहद वाणी में शिनिप्रवर सात्‍यकि को सम्‍बोधित करके बोले। युधिष्ठिर ने कहा-शैनेय ! साधु पुरुषों ने पूर्वकाल में विपति के समय एक सूहद् के कर्तव्‍य के विषय में जिस सनातन वर्ग का साक्षात्‍कार किया है, आज उसी के पालन का अवसर उपस्थित हुआ है।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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