महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-31

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प्रथम (35) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर और अभिमन्‍यु का संवाद तथा व्‍यूह भेदन के लिये अभिमन्‍यु की प्रतिज्ञा

संजय कहते हैं – राजन् ! द्रोणाचार्य के द्वारा सुरक्षित उस दुर्धर्ष सेना का भीमसेन आदि कुन्‍तीपुत्रो ने डटकर सामना किया ।सात्‍यकि, चेकितान, द्रुपदकुमार, धृष्‍टघुम्‍न, पराक्रमी कुन्तिभोज, महारथी द्रुपद, अभिमन्‍यु, क्षत्रवर्मा, शक्तिशाली बृजत्‍क्षत्र, चेदिराज धृष्‍टकेतु, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, घटोत्‍कच, पराक्रमी, युधामन्‍यु, किसी से परास्‍त न होने वाला वीर शिखण्‍डी, दुर्धर्षवीर उतमौजा, महारथी विराट, क्रोध में भरे हुए द्रौपदी पुत्र, बलवान् शिशुपाल कुमार, महापराक्रमी केकयराजकुमार तथा सहस्‍त्रों सृंजयवंशी क्षत्रिय-ये तथा और भी अस्‍त्रविद्या में पारंगत एवं रणदुर्मद बहुत से शूरवीर अपने दलबल के साथ वहॉ उपस्थित थे । इन सबने युद्ध की अभिलाषा से द्रोणाचार्य पर सहसा धावा किया । भरदाजनन्‍दन द्रोणाचार्य बड़े पराक्रमी थे । शत्रुओं के आक्रमण से उन्‍हें तनिक भी घबराहट नहीं हुई । उन्‍होंने अपने समीप आये हुए पाण्‍डव वीरों को बाण समूहों की भारी वृष्टि करके आगे बढ़ने से रोक दिया । जैसे दुर्भेघ पर्वत के पास पहॅुचकर जल का महान् प्रवाह अवरूद्ध हो जाता है तथा जिस प्रकार सम्‍पूर्ण जलाशय (समुद्र) अपनी तदभूमि को नही लॉघ पाते, उसी प्रकार वे पाण्‍डव सैनिक द्रोणाचार्य के अत्‍यन्‍त निकट न पहॅुच सके । राजन् ! द्रोणाचार्य के धनुष से छूटे हुए बाणों से अत्‍यन्‍त पीडित होकर पाण्‍डववीर उनके सामने नही ठहर सके । उस समय हम लोगों ने द्रोणाचार्य की भुजाओं का वह अदभूत बल देखा, जिससे कि सृंजयोंसहित सम्‍पूर्ण पांचालवीर उनके सामने टिक न सके । क्रोध में भरे हुए उन्‍ही द्रोणाचार्य को आते देख राजा युधिष्ठिर ने उन्‍हें रोकने के उपाय पर बारंबार विचार किया । इस समय द्रोणाचार्य का सामना करना दूसरे के लिये असम्‍भव जानकर युधिष्ठिर ने वह दु:सह एवं महान भार सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु पर रख दिया । अमित तेजस्‍वी अभिमन्‍यु वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण तथा अर्जुन से किसी बात मे कम नही था, वह शत्रुवीरों का संहार करने में समर्थ था; अत: उससे युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा । तात ! संशप्‍तकों के साथ युद्ध करके लौटनेपर अर्जुन जिस प्रकार हम लोगों की निन्‍दा नकरे (हमें असमर्थ न बतावें), वैसा कार्य करो । हम लोग तो किसी तरह भी चक्रव्‍यूह के भेदन की प्रक्रिया को नही जानते हैं । महाबाहो ! तुम, अर्जुन, श्रीकृष्‍ण अथवा प्रधुम्‍न– ये चार पुरूष ही चक्रव्‍यूह का भेदन कर सकते हो । पॉचवॉ कोई योद्धा इस कार्य के योग्‍य नहीं है । तात अभिमन्‍यु ! तुम्‍हारे पिता और मामा के पक्ष के समस्‍त योद्धा तथा सम्‍पूर्ण सैनिक तुमसे याचना कर रहे हैं । तुम्‍ही इन्‍हें वर देने के योग्‍य हो । तात ! यदि हम विजयी नही हुए तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन निश्‍चय ही हमलोगों को कोसेंगे, अत: शीध्र अस्‍त्र लेकर तुम द्रोणाचार्यकी सेना का विनाश कर डालो ।

अभिमन्‍यु ने कहा– महाराज ! मैं अपने पितृवर्ग की विजय की अभिलाषा से युद्धस्‍थल में द्रोणाचार्य की अत्‍यन्‍त भयंकर, सुदृढ़ एवं श्रेष्‍ठ सेनामे शीध्र ही प्रवेश करता हॅू । पिताजी ने मुझे चक्रव्‍यूह के भेदन की विधि तो बतायी है; परंतु किसी आपत्ति में पड़ जाने पर मैं उस व्‍यूह से बाहर नही निकल सकता । युधिष्ठिर बोले – योद्धाओं में श्रेष्‍ठ वीर ! तुम व्‍यूह का भेदन करो और हमारे लिये द्वार बना दो ! तात ! फिर तुम जिस मार्ग से जाओगे, उसी के द्वारा हम भी तुम्‍हारे पीछे-पीछे चले चलेंगे । बेटा ! हमलोग युद्धस्‍थल मे तुम्‍हें अर्जुन के समान मानते है । हम अपना ध्‍यान तुम्‍हारी ओर रखकर सब ओर से तुम्‍हारी रक्षा करते हुए तुम्‍हारे साथ ही चलेंगे । भीमसेन बोले- बेटा ! मैं तुम्‍हारे साथ चलॅूगा । धृष्‍टधुम्न, सात्‍यकि, पांचालदेशीय योद्धा, केकयराजकुमार, मत्‍स्‍य देश के सैनिक तथा समस्‍त प्रभद्रकगण भी तुम्‍हारा अनुसरण करेंगे । तुम जहां-जहां एक बार भी व्‍यूह तोड़ दोगे, वहां-वहां हमलोग मुख्‍य-मुख्‍य योद्धाओं का वध करके उस व्‍यूह को बारंबार नष्‍ट करते रहेंगे ।

अभिमन्‍यु ने कहा – जैसे पतग जलती हुई आग में कूद पडता है, उसी प्रकार मै भी कुपित हो द्रोणाचार्य के दुर्गम सैन्‍य-व्‍यूह मे प्रवेश करूँगा । आज मै वह पराक्रम करूँगा, जो पिता और माता दोनो के कुलों के लिये हितकर होगा तथा वह मामा श्रीकृष्‍ण तथा पिता अर्जुन दोनों को प्रसन्‍न करेगा । यदपि मैं अभी बालक हूं तो भी आज समस्‍त प्राणी देखेंगे कि मैने अकेले ही समूह के समूह शत्रु सैनिकों का युद्ध में संहार कर डाला है । यदि आज मेरे साथ युद्ध करके कोई भी सैनिक जीवित बच जाय तो मै अर्जुनका पुत्र नही और सुभद्रा की कोख से मेरा जन्‍म नहीं । यदि मैं युद्ध में एकमात्र रथ की सहायता से सम्‍पूर्ण क्षत्रिय मण्‍डल के आठ टुकड़े न कर दॅू तो अर्जुन का पुत्र नही । युधिष्ठिर ने कहा- सुभद्रानन्‍दन ! ऐसी ओजस्‍वी बातें कहते हुए तुम्‍हारा बल निरन्‍तर बढ़ता रहे; क्‍योंकि तुम द्रोणाचार्य के दुर्गम सैन्‍य में प्रवेश करने का उत्‍साह रखते हो । द्रोणाचार्य की सेना उन महाबली धनुर्धर पुरूषसिंह वीरों द्वारा सुरक्षित है, जो कि साध्‍य, रूद्र तथा मरूद्रणों के समान बलवान और वसु, अग्नि एवं सूर्य के समान पराक्रमी है । संजय कहते है- राजन् ! महाराज युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर अभिमन्‍यु अपने सारथि को यह आज्ञा दी –सुमित्र ! तुम शीध्र ही घोड़ों को रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य की सेनाकी ओर हांक ले चलो ।

इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में अभिमन्‍यु की प्रतिज्ञाविषयक पैंतीसवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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