महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 69 श्लोक 17-32
एकोनसप्ततितम (69) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्युपर्व )
उस समय गोरूपधारिणी पृथ्वी वात्सल्य–स्नेह से परिपूर्ण हो बछडे, दुहने वाले और दुग्धपात्र की इच्छा करती हुई खडी हो गयी । वनस्पतियों में से खिला हुआ शालवृक्ष बछडा हो गया । पाकर का पेड दुहने वाला बन गया । गूलर सुन्दर दुग्धपात्र का काम देने लगा । कटने पर पुन: पनप जाना यही दूध था ।पर्वतों में उदयाचल बछडा, महागिरि मेरु दुहने वाला, रत्न और ओषधि दूध तथा प्रस्तर ही दुग्धपात्र था। देवताओं में भी उस समय कोई दुहने वाला और कोई बछडा बन गया । उन्होंने पुष्टिकारक अमृतमय प्रिय दूध दुह लिया । असुरों ने कच्चे बर्तन में मायामय दूध का ही दोहन किया । उस समय द्विमूर्धा दुहने वाला और विरोचन बछडा बना था । भूतल के मनुष्यों ने कृषि कर्म और खेती की उपज को ही दूध के रूप में दुहा । उनके बछडे के स्थान पर स्वायम्भू मनु थे और दुहने का कार्य पृथु ने किया।सर्पों ने तुम्बी के बर्तन में पृथ्वी से विष का दोहन किया । उनकी ओर से दुहने वाला धृतराष्ट्र और बछडा तक्षक था । अक्लिष्टकर्मा सप्तर्षियों ने ब्रह्म (वेद एवं तप) का दोहन किया । उनके दोग्धा बृहस्पति, पात्र छन्द और बछडा राजा सोम थे । यक्षों ने कच्चे बर्तन में पृथ्वी से अन्तर्धान विद्या का दोहन किया । उनके दोग्धा कुबेर और बछडा महादेव जी थे । गन्धर्वों और अप्सराओं ने कमल के पात्र में पवित्र गन्ध को ही दूध के रूप में दुहा । उनका बछडा चित्ररथ और दुहने वाले गन्धर्वराज विश्वरुचि थे । पितरों ने पृथ्वी से चांदी के पात्र में स्वधारूपी दूध का दोहन किया । उस समय उनकी ओर से वैवस्वत यम बछडा और अन्तक दुहने वाले थे । सृंजय ! इस प्रकार सभी प्राणियों ने बछडों और पात्रों की कल्पना करके पृथ्वी से अपने अभीष्ट दूध का दोहन किया था, जिससे वे आज तक निरन्तर जीवन-निर्वाह करते हैं ।तदनन्तर प्रतापी वेनकुमार पृथु ने नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा यजन करके मन को प्रिय लगने वाले सम्पूर्ण भोगों की प्राप्ति कराकर सब प्राणियों को तृप्त किया । भूतल पर जो कोई भी पार्थिव पदार्थ हैं, उनकी सोने की आकृति बनाकर राजा पृथु ने महायज्ञ अश्वमेघ में उन्हें ब्राह्मणों को दान किया । राजा ने छाछठ हजार सोने के हाथी बनवाये और उन्हें ब्राह्मणों को दे दिया । राजा पृथु ने इस सारी पृथ्वी की भी मणि तथा रत्नों से विभूषित सुवर्णमयी प्रतिमा बनवायी और उसे ब्राह्मणों को दे दिया । श्वैत्य सृंजय ! चारों कल्याणकारी गुणों में वे तुमसे बहुत बढे-चढे थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों की क्या गिनती है ? अत: तुम यज्ञानुष्ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो । ऐसा नारदजी ने कहा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत अभिमन्यवधपर्व में षोडशराजकीयोपाख्यान विषयक उनहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
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