महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 107 श्लोक 92-107

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सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 92-107 का हिन्दी अनुवाद

वासुदेव ! बचपन में खेलते समय मैंने अपने धूलि धूसर शरीर से उन महामनस्वी महात्मा को सदा दूषित किया है।

गदाग्रज ! कहते है, मैं बचपन में अपने पिता महात्मा पाण्डु के भी पितृतुल्य भीष्म जी की गोद में चढ़कर जब उन्हें तात कहकर पुकारता था, उस समय उस बाल्यावस्था में ही वे मुझसे इस प्रकार कहते थे - भरतनन्दन ! मैं तुम्हारा तात नहीं, तुम्हारे पिता का तात हूँ। वे ही वृद्ध पितामह मेेरे द्वारा मरने योग्य कैसे हो सकते है। भले ही वे मेरी सेना का नाश कर डाले, मेरी विजय हो या मृत्यु; परंतु मैं उन महात्मा भीष्म के साथ युद्ध नहीं करूँगा; अथवा श्रीकृष्ण ! आप कैसा ठीक समझते है। श्रीकृष्ण ! अपने सनातन धर्म को जानने वाला मेरे जैसा पुरूष हथियार डालकर बैठे हुए अपने बूढे पितामह पर प्रहार कैसे करेगा। भगवान श्रीकृष्ण बोले- विजयी कुन्तीकुमार ! तुम क्षत्रिय धर्म में स्थित हो। युद्ध में तुम पहले भीष्म के वध की प्रतिज्ञा करके अब उन्हें कैसे नहीं मारोगे ? पार्थ ! तुम युद्धदुर्मद क्षत्रिय प्रवर भीष्म को रथ से मार गिराओ।
रणक्षेत्र में गंगनन्दन भीष्म को मारे बिना तुम्हारी विजय नहीं होगी। इस बात को देवताओं ने पहले से ही देख रखा है। भीष्म इसी प्रकार यमलोक को जाएंगे। पार्थ ! जिसे देवताओं ने देखा है, वह उसी प्रकार होगा। उसे कोई बदल नहीं सकता। दुर्धर्ष वीर भीष्म मुँह फैलाये हुए काल के समान प्रतीत होते है। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई, भले ही वह साक्षात वज्र धारी इन्द्र ही क्यों न हो, उनके साथ युद्ध नहीं कर सकता। अर्जुन ! तुम स्थिर होकर भीष्म को मारो और मेरी यह बात सुनो, जिसे पूर्वकाल में महाबुद्धिमान बृहस्पति जी ने देवराज इन्द्र को बताया था।
कोई बड़े से बडे़ गुरूजन, वृद्ध और सर्वगुण सम्पन्न पुरूष ही क्यों नह हो, यदि शस्त्र उठाकर अपना वध करने के लिये जा रहे हो तो उस आततायी को अवश्य मार डालना चाहिये। धनंजय ! यह क्षत्रियों का निश्चित सनातन धर्म है। उन्हें किसी के प्रति दोषदृष्टि न रखकर सदा युद्ध प्रजाओं की रक्षा और यज्ञ करते रहने चाहिये। अर्जुन ने कहा- श्रीकृष्ण ! शिखण्डी निश्चय ही भीष्म की मृत्यु का कारण होगा; क्योंकि भीष्म उस पाणचाल राजकुमार को देखते ही सदा युद्ध से निवृत हो जाते है। अतः हम सब लोग उनके सामने शिखण्डी को खड़ा करके शस्त्रप्रहार रूप उपाय द्वारा गंगनन्दन भीष्म को मार गिरायेंगे, यही मेरा विचार है। मैं बाणों द्वारा अन्य महाधनुर्धरों को रोकूँगा। शिखण्डी भी योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म के साथ ही युद्ध करे। कुरूकुल के प्रधान वीर भीष्म का यह निश्चय है कि मैं शिखण्डी को नहीं मारूँगा क्योंकि वह पहले कन्या रूप् में उत्पन्न होकर पीछे पुरूष हुआ है। अर्जुन का भीष्म के वध से सम्बंध रखने वाला यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण सहित समस्त पाण्डव बडे प्रसन्न हुए। उस समय हर्षातिरेक के कारण उनके शरीर में रोमांन्च हो आया। ऐसा निश्चय करके श्रीकृष्णसहित पाण्डव मन ही मन अत्यन्त संतुष्ट हो महात्मा भीष्म से बिदा लेकर चले गये और उन पुरूषशिरोमणियों ने अपनी अपनी शय्याओं का आश्रय लिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्व के अन्तर्गत भीष्मवधपर्व नवें दिन के युद्ध के समाप्त होने के पश्चात परस्पर गुप्तमन्त्रणा विषय एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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