महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-19
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प्रथम (1) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व)
कुरूक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति तथा युद्ध के नियमों का निर्माण अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।
जनमेजय ने पूछा- मुने! कौरव, पाण्डव और सौमकवीरों तथा नाना देशों से आये हुए अन्य महामना नरेशों ने वहां किस प्रकार युद्ध किया?
वैशम्पायनजी ने कहा- पृथ्वीपते! वीर कौरव, पाण्डव और सोमकों ने तपोभूमि कुरूक्षेत्र में जिस प्रकार युद्ध किया था, उसे बताता हूं; सुनो।
सोमकोसहित पाण्डव तथा कौरव दोनों महाबली थे। वे एक दूसरे को जीतने की आशा से कुरूक्षेत्र में उतरकर आमने-सामने डटे हुए थे। वे सबके सब वेदाध्ययन से सम्पन्न और युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे और संग्राम में विजय की आशा रखकर रणभूमि में बलपूर्वक एक दूसरे के सम्मुख खडे़ थे। पाण्डवों के योद्धालोग अपने-अपने सैनिकों के सहित धृतराष्ट्र पुत्र की दुर्धर्ष सेना के सम्मुख जाकर पश्र्चिमभाग में पूर्वाभिमुख होकर ठहर गये थे। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने समन्तपञ्चक क्षेत्र से बाहर यथायोग्य सहस्त्रों शिविर बनवाये थे। समस्त पृथ्वी के सभी प्रदेश नवयुवकों से सूने हो रहे थे। उनमें केवल बालक और वृद्ध ही शेष रह गये थे। सारी वसुधा घोडे़, हाथी, रथ और तरूण पुरूषों से हीन-सी हो रही थी। नृपश्रेष्ठ! सूर्यदेव जम्बूद्वीप के जितने भूमण्डल को अपनी किरणों से तपाते हैं, उतनी दूर की सेनाएं वहां युद्ध के लिये आ गयी थीं। वहां सभी वर्ण के लोग एक ही स्थान पर एकत्र थे। युद्धभूमि का घेरा कई योजन लम्बा था। उन सब लोगों ने वहां के अनेक प्रदेशों, नदियों, पर्वतों और वनों को सब ओर से घेर लिया था। नरश्रेष्ठ! राजा युधिष्ठिर सेना और सवारियोंसहित उन सबके लिये उत्तमोत्तम भोजन प्रस्तुत करने का आदेश दे दिया था।
तात! रात के समय युधिष्ठिर ने उन सबके सोने के लिये नाना प्रकार की शय्याओं का भी प्रबन्ध कर दिया था। युद्धकाल उपस्थित होने पर कुरूनन्दन युधिष्ठिर ने सभी सैनिकों-के पहचान के लिये उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार के संकेत और आभूषण दे दिये थे, जिससे यह जान पडे़ कि यह पाण्डवपक्ष का सैनिक है। कुन्तीपुत्र अर्जुन के ध्वज का अग्रभाग देखकर महामना दुर्योधन ने समस्त भूपालों के साथ पाण्डवसेना के विरूद्ध अपनी सेना की व्यहरचना की। उसके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था। वह एक हजार हाथियों के बीच में अपने भाइयों से घिरा हुआ शोभा पाता था। दुर्योधन को देखकर युद्ध का अभिनन्दन करने वाले पाञ्चाल सैनिक बहुत प्रसन्न हुए और प्रसन्नतापूर्वक बडे़-बडे़ शङ्खों तथा मधुर ध्वनि करने वाली भेरियों को बजाने लगे। तदनन्तर अपनी सेना को हर्ष और उल्लास में भरी हुई देख समस्म पाण्डवों के मन में बड़ा हर्ष हुआ तथा पराक्रमी वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भी संतुष्ट हुए। उस समय एक ही रथ पर बैठे हुए पुरूषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन आनन्दमग्न होकर अपने दिव्य शंखों को बजाने लगे। पाञ्चजन्य और देवदत्त दोनों शङ्खों की ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष के बहुत-से सैनिक भय के मारे मल-मूत्र करने लगे। जैसे गर्जते हुए सिंह की आवाज सुनकर दूसरे वन्य पशु भयभीत हो जाते हैं, उसी प्रकार उन दोनों का शङ्खनाद सुनकर कौरवसेना का उत्साह शिथिल पड़ गया- वह खिन्न-सी हो गयी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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