महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 26 श्लोक 26-30
षडविंश (26) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवदगीता पर्व)
सम्बन्ध – उपर्युक्त श्लोकों में भगवान ने आत्मा को अजन्मा और अविनाशी बतलाकर उसके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध किया; अब दो श्लोकों द्वारा आत्मा को औपचारिक रूप से जन्मने – मरनेवाला मानने पर भी उसके लिये शोक करना अनुचित है, ऐसा सिद्ध करते है – किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो ! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है | क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है। सम्बन्ध – अब अगले श्लोक में यह सिद्ध करते हैं कि प्राणियों के शरीरों को उद्देश्य करके भी शोक करना नहीं बनता – हे अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है ? सम्बन्ध- आत्मतत्तव अत्यन्त दुर्बोव होने के कारण उसे समझाने के लिये भगवान् ने उपुर्यक्त श्लोंकों द्वारा भिन्न–भिन्न प्रकार से उसके स्वरूप का वर्णन किया; अब अगले श्लोक में उस आत्मतत्त्व के दर्शन, वर्णन और श्रवण की अलौकिकता और दुर्लभता का निरूपण करते हैं कोई एक महापुरूष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है [१]और वैसे ही दूसरा कोई महापुरूष ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भांति वर्णन करता ह[२]तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरूष ही इसे आश्चर्य की भांति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ह[३]। हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने के योग्य नहीं है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे मनुष्य लौकिक दृश्य वस्तुओं को मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा इदंबुद्धि से देखता है, आत्मदर्शन वैसा नहीं है; आत्मा का देखना अद्भुत और अलौकिक है। जब एकमात्र चेतन आत्मा से भिन्न किसी की सत्ता ही नहीं रहती, उस समय आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही अपने को देखता है। उस दर्शन में द्रष्टा, दृश्य और दर्शन की त्रिपुटी नहीं रहती, इसलिये वह देखना आश्चर्य की भाँति है ।
- ↑ जितने भी उदाहरणों से आत्मतत्त्व समझाया गया है, उनमें कोई भी उदाहरण पूर्ण रूप से आत्मतत्त्व को समझाने वाला नहीं है। उसके किसी अंश को ही उदाहरणों द्वारा समझाया जाता है; क्योंकि आत्मा के सदृश अन्य कोई वस्तु है ही नहीं, इस अवस्था में कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से कैसे लागू हो सकता है ?
- ↑ जिसके अन्त:करण में पूर्ण श्रद्धा और आस्तिक भाव नहीं होता, जिसकी बुद्धि शुद्ध और सूक्ष्म नहीं होती – ऐसा मनुष्य इस आत्मतत्त्व को सुनकर भी संशय और विपरित भावना के कारण इसके स्वरूप को यथार्थ नहीं समझ सकता; अतएव इस आत्मत्त्व का समझना अनधिकारी के लिये बड़ा ही दुलर्भ है ।