महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 73-88

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त्रिचत्वारिंश (43) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 73-88 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर बोले- आचार्य! इसलिये अब मै आपसे पूछता हूं। आप मेरी बात सुनिये। इतना कहकर राजा युधिष्ठिर व्यथित और अचेत-से होकर उनसे कुछ भी न बोल सके । संजय कहते है- पृथ्वीपते! कृपाचार्य यह समझ गये कि युधिष्ठिर क्या कहना चाहते है; अतः उन्होनें उनसे इस प्रकार कहा- ‘राजन्! मै अवध्य हूं। जाओ, युद्ध करो और विजय प्राप्त करो ।‘नरेश्वर! तुम्हारे इस आगमन से बड़ी प्रसन्नता हुई है; अतः सदा उठकर मैं तुम्हारी विजय के लिये शुभकामना करूंगा। यह तुमसे सच्ची बात कहता हूं ।महाराज! प्रजानाथ! कृपाचार्य की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर उनकी अनुमति ले जहां मद्रराज शल्य थे, उस और चले गये । दुर्जय वीर शल्य को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा करने के पश्चात् राजा युधिष्ठिर ने उनसे अपने हित की बात कही- ‘दुर्धर्ष वीर! मै पापरहित एवं निरपराध रहकर आपके साथ युद्ध करूंगा; इसके लिये आपकी अनुमति चाहता हूं। राजन् ! आपकी आज्ञा पाकर मैं समस्त शत्रुओं को युद्ध में परास्त कर सकता हूं’ । शल्य बोले- महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नही आते तो मैं युद्ध में तुम्हारी पराजय के लिये तुम्हे शाप दे देता। अब मैं बहुत संतुष्ट हूं। तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया। तुम जो चाहते हो, वह पूर्ण हो। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध करो ओर विजय प्राप्त करो । वीर! तुम कुछ ओर बताओ, किस प्रकार तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा ? मैं तुम्हें क्या दूं ? महाराज! इस परिस्थिति में युद्ध विषयक सहयोग को छोड़कर तुम मुझसे और क्या चाहते हो ? ।पुरूष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नही है। महाराज! यह सच्ची बात है। कौरवों के द्वारा मैं अर्थ से बॅधा हुआ हूं ।इसलिये मैं तुमसे नपुंसक की भॉति कह रहा हूं। बताओ, तुम युद्धविषयक सहयोग के सिवा और क्या चाहते हो ? मेरे भानजे ! मैं तुम्हारा अभीष्ठ मनोरथ पूर्ण करूंगा।

युधिष्ठिर बोले- महाराज! मैं आपसे यही वर मॉगता हूं कि आप प्रतिदिन उत्तम हित की सलाह मुझे देते रहे। अपने इच्छानुसार युद्ध दूसरे के लिये करे ।शल्य बोले- नृपश्रेष्ठ! बताओ, इस विषय में मैं तुम्हारी क्या सहायता करूं ? कौरवों द्वारा मैं अर्थ से बॅधा हुआ हूं; अतः अपने इच्छानुसार युद्ध तो मैं तुम्हारे विपक्षी की और से ही करूंगा ।युधिष्ठिर बोले- मामाजी! जब युद्ध के लिये उद्योग चल रहा था, उन दिनों आपने मुझे जो वर दिया था, वही वर आज भी मेरे लिये आवश्यक है। सुतपुत्र को अर्जुन के साथ युद्ध हो तो उस समय आपको उसका उत्साह नष्ट करना चाहिये। मामाजी! मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि उस युद्ध में दुर्योधन आप- जैसे शुरवीर को सूतपूत्र के सारथी का कार्य करने के लिये अवश्य नियुक्त करेगा। शल्य बोले- कुन्तीनन्दन! तुम्हारा यह अभीष्ट मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। जाओ, निश्चिन्त होकर युद्ध करो। मैं तुम्हारे वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा करता हूं। संजय कहते हैं- राजन्! इस प्रकार अपने मामा मद्रराज शल्य की अनुमति लेकर भाईयों से घिरे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर उस विशाल सेना से बाहर निकल गये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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