महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 84 श्लोक 40-55
षडशीतितम (86) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
भीष्मि और युधिष्ठिर का युद्ध, धृष्टउद्युम्न और सात्यकि के साथ विन्द और अनुविन्द का संग्राम, द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति संजय कहते हैं- राजन्! रथहीन हुए अपने यशस्वी भाई चित्रसेन के पास जाकर आपके पुत्र विकर्ण ने उसे अपने रथ पर चढा़ लिया। जब इस प्रकार भयंकर और घमासान युद्ध होने लगा, उसी समय शान्तनुनन्दन भीष्मह ने तुरंत ही राजा युधिष्ठिर पर धावा किया। यह देख सृंजयवीर रथ, हाथी और घोड़ों सहित कांप उठे। उन्होंने युधिष्ठिर को मौत के मुख में पड़ा हुआ ही समझा। कुरूनन्दन राजा युधिष्ठिर भी नकुल और सहदेव के साथ महाधनुर्धर पुरूषसिंह शान्तनुनन्दन भीष्मी का सामना करने के लिये आगे बढे़। जैसे मेघ सूर्य को ढक लेता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में हजारों बाणों की वर्षा करते हुए पाण्डु४पुत्र युधिष्ठिर ने भीष्मै को आच्छादित कर दिया। आर्य! उनके द्वारा अच्छी तरह चलाये हुए सैंकड़ों और हजारों बाणों के समूह को गङ्गानन्दन भीष्म५ ने ग्रहण कर लिया (अपने बाणों द्वारा विफल कर दिया)। आर्य! इसी प्रकार भीष्मी के चलाये हुए बाण समूह भी आकाशमें पक्षियों के झुंड़ के समान दिखायी देने लगे। शान्तनुनन्दन भीष्मए ने युद्धस्थल में आधे निमेष में ही
पृथक्-पृथक् बाणों का जाल-सा बिछाकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को अदृश्य कर दिया। तब क्रोध में भरे हुए राजा युधिष्ठिर ने कुरूवंशी महात्मा भीष्मु पर विषधर सर्प के समान नाराच का प्रहार किया। राजन्! परंतु महारथी भीष्मम ने युधिष्ठिर के धनुष से छूटे हुए उस नाराच को अपने पास पहुंचने से पहले ही समरभूमि में एक क्षुरप्रद्वारा काट गिराया। इस प्रकार रणभूमि में काल के समान भयंकर उस नाराचको काटकर भीष्मु ने कौरव राज युधिष्ठिर के सुवर्णाभूषणों से युक्त घोड़ों को मार डाला।
घोड़ों के मारे जाने पर भी उसी रथ में खडे़ हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्मो पर शक्ति चलायी। कालपाश के समान तीखी एवं भयंकर उस शक्ति को सहसा अपनी ओर आती देख भीष्म ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा उसे रणभूमि में काट गिराया। तदनन्तर जिसके घोड़ें मारे गये थे, उस रथ को त्याग कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत ही महामना नकुल के रथ पर आरूढ़ हो गये। उस समय रणक्षेत्र में नकुल और सहदेव को पाकर शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले भीष्म ने अत्यन्त कुपित हो उन्हें बाणों से आच्छादित कर दिया। महाराज! नकुल और सहदेव को भीष्म के बाणों से अत्यन्त पीड़ित देख युधिष्ठिर अपने मन में भीष्म के वध की इच्छा लेकर गहन विचार करने लगे। तदनन्तर युधिष्ठिर ने अपने वशवर्ती नरेशों तथा सुहृद्गणों को यह आदेश दिया कि सब लोग मिलकर शान्तनुनन्दन भीष्मव को मार डालो। तब कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर समस्त राजाओं ने विशाल रथसमूह के द्वारा पितामह भीष्मक को चारों ओर से घेर लिया। राजन्! सब ओर से घिरे हुए आपके ताऊ देवव्रत सब महारथियों को धराशायी करते हुए अपने धनुष के द्वारा क्रीडा करने लगे। जैसे सिंह का बच्चा वन के भीतर मृगों के झुंड में घुसकर खेल कर रहा हो, उसी प्रकार कुन्तीकुमारों ने युद्ध में विचरते हुए कुरूवंशी भीष्मो को वहां देखा। महाराज! वे रणभूमि में वीरों को डांटते और बाणों के द्वारा उन्हें त्रास देते थे। जैसे मृगों के समूह सिंह को देखकर डर जाते हैं, उसी प्रकार सब राजा भीष्म् को देखकर भयभीत हो गये। जैसे वायु की सहायता से घास-फूस को जलाने की इच्छा वाली अग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो उठती हैं, उसी प्रकार भरतवंश के सिंह भीष्म के स्वरूप कोरणक्षेत्र में क्षत्रियों ने अत्यन्त तेजस्वी देखा।
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