महाभारत वन पर्व अध्याय 110 श्लोक 35-58
दशाधिकशततमा (110) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
राजन ! एक दिन जब वे जल मे स्नान कर रहे थे, उर्वसी अप्सरा को देखकर उनका वीर्य स्खलित हो गया । उसी समय प्यास से व्याकुल हुई एक मृगी वहां आयी और पानी के साथ उस वीर्य को भी पी गयी । इससे उसके गर्भ रह गया । वह पूर्वजन्म मे एक देवकन्या थी । लोकसत्रष्टा भगवान ब्रह्मा ने उसे यह वचन दिया था कि तू मृगी होकर एक मुनि को जन्म देने के पश्चात उस योनि से मुक्त हो जायेगी। ब्रह्माजी की वाणी अमोघ है और दैव के विधान को कोई टाल नहीं सकता, इसलिये विभाण्डक के पुत्र महर्षि ऋष्यश्रृंग का जन्म मृगी के पेट से हुआ । वे सदा तपस्या में संलग्न रहकर वन में ही निवास करते थे । राजन ! उन महात्मा मुनि के सकर पर एक सींग था, इसलिये उस समय उनका ऋष्यश्रृंग नाम से प्रसिद्ध हुआ । नरेश्वर ! उन्होंने अपने पिता से सिवा दूसरे मनुष्य को पहले कभी नहीं देखा था, इसलिये उनका मन सदा स्वभाव से ही ब्रह्मचर्य में संलग्न रहता था । इन्हीं दिनों राजा दशरथ के मित्र लोमपाद अंग देश के राजा हुए । उन्होंने जान बुझकर एक ब्राह्मण के साथ मिथ्या व्यवहार किया- यह बात हमारे सुनने में आयी है । इसी अपराध के कारण ब्राह्मणों ने राजा लोमपाद को त्याग दिया था । राजा ने पुराहित पर मनमाना दोषारोपण किया था, इसलिये इन्द्र ने उनके राज्य में वर्षा बन्द कर दी । इस अनावृष्टि के कारण प्रजा को बड़ा कष्ट होने लगा । युधिष्ठिर ! तब वे राजा ने तपस्वी, मेधावी और इन्द्र से वर्षा करवाने में समर्थ ब्राह्मणों को बुलाकर इस संकट के निवारण का उपाय पूछा । विप्रगण ! मेघ कैसे वर्षा करे– यह उपाय सोचिये। उनके पूछने पर मनीषी महात्माओं ने अपना अपना विचार बताया । उन्ही ब्राह्मणों में ऐ श्रैष्ठ महर्षि भी थे । उन्होंने राजा से कहा– राजेन्द्र ! तुम्हारे ऊपर ब्राह्मण कुपित हैं; इसके लिए तुम प्रायश्चित करो । ! भूपाल ! साथ ही हम तुम्हें यह सलाह देते है कि अपने राज्य में महर्षि विभाण्डक के पुत्र वनवासी ऋष्यश्रृंग को बुलाओ। वे स्त्रियों से सर्वथा अपरिचित है ओर सदा सरल व्यवहार में ही तत्पर रहते हैं। महाराज ! वे महातपस्वी ऋष्यश्रृंग यदि आपके राज्य में पदार्पण करें तो तत्काल ही मेघ वर्षा करेगा, इस विषय में मुझे तनिक भी संदेह नहीं है।। राजन ! यह सुनकर राजा लोमपाद अपने अपराध का प्रायश्चित करके ब्राह्मणों के पास गये और जब वे प्रसन्न हो गये, तब पुन: अपनी राजधानी को लौट आये । राजा आगमन सुनकर प्रजाजनों को बड़ा हर्ष हुआ । तदनन्तर अंगराज मन्त्रकुशल मन्त्रियों को बुलाकर उनसे सलाह करके एक निश्चय पर पहूंच जाने के बाद मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग को अपने यहां ले आने के प्रयत्न मे लग गये राजा के मंत्रि शास्त्रज्ञ, अर्थशास्त्र के विद्वान और नीतिनिपुण थे । अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले नरेश के उन मन्त्रियों के साथ विचार करके एक उपाय जान लिया । तत्पश्चात भूपाल लामपाद ने दूसरों को लुभाने की सब कलाओं में कुशल प्रधान प्रधान वेश्याओें का बुलाया और कहा तुमलोग कोई उपाय करके मुनिकुमार ऋष्यश्रृंग को यहां ले आओ । सुन्दरियों ! तुम लुभाकर उन्हें सब प्रकार से सुख सुविधा का विश्वास दिलाकर मेरे राज्य में ले आना । महाराज की यह बात सुनते ही वेश्याओं का रंग फीका पड़ गया । वे अचेत सी हो गयीं । एक ओर तो उन्हें राजा का भय था और दूसरी ओर मुनि के शाप से डरी हुई थी; अत: उन्होंने इस कार्य को असम्भव बताया । उन सब मे एक बूढ़ी स्त्री थी । उसने राजा से इस प्रकार कहा- महाराज ! मैं उन तपोधन मुनिकुमार को लाने का प्रयत्न करूँगी; परंतु आप यह आज्ञा दें कि मैं इसके लिए मनचाही व्यवस्था कर सकूं । सदि मेरी इच्छा पूर्ण हुई तो मै मुनिपुत्र ऋष्यश्रृंग को यहां लाने मैं सफल हो सकूंगी। राजा ने उसकी इच्छा के अनुसार व्यव्स्था करने की आज्ञा दे दी । साथ ही उसे प्रचुर धन और नाना प्रकार के रत्न भी दिये । युधिष्ठिर ! तदनन्तर वह वेश्या रूप और यौवन से सम्पन्न स्त्रियों को साथ लेकर शीघ्रतापूर्वक वन की ओर चल दी ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशतीर्थ यात्रा के ऋष्यश्रृंगोपाख्यान विषयक एक सौ दसवॉ अध्याय पूरा हुआ ।
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