महाभारत वन पर्व अध्याय 114 श्लोक 1-18
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चतुर्दशाधिकशततम (114) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
युधिष्ठिर कौशिकी की, गंगासागर एवं वैतरणीनदी होते हुए महेन्द्रपर्वत पर गमन
वैशम्पायनजी कहते है- जनमजेय ! तदनन्तर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने कौशिकी नदी के तटवर्ती सभी तीर्थो और मन्दिरों की क्रमश: यात्रा की । राजन ! उन्होने गंगा सागरसंगमतीर्थ में समुद्रतट पर पहूंचकर पांच सौ नदियों के जल में स्नान किया । भारत ! तत्पश्चात वीर भूपाल युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ कलिगं देश (उड़ीसा) में गये । तब लोमशजी ने कहा- कुन्तीकुमार ! यह कलिगं देश है, जिसमे वैतरणी नदी बहती है। जहां धर्म ने भी देवताओं की शरण में जाकर यज्ञ किया था । यह पर्वतमाला सुशोभित वैतरणी का वही उत्तर तट है, जहां यज्ञ का आयोजन किया गया था । बहुत-से ऋषि मुनि तथा ब्राह्मण लोग सदा इस उत्तर तट का सेवन करते आये हैं ।। स्वर्गलोक की प्राप्ति करने वाले पुण्यात्मा मनुष्य के लिये यह स्थान ‘देवयान’ मार्ग के समान है । प्राचीन काल में ऋषियों तथा अन्य लोगों ने भी यहां बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया था । राजेन्द्र ! यहीं रूद्रदेव ने यज्ञ में पशु को ग्रहण कर लिया था । उस पशु को ग्रहण करके उन्होंने कहा- ‘यह तो मेरा हिस्सा है’ । भरतश्रेष्ठ ! पशु का अपहरण हो जाने पर देवताओं ने उनसे कहा- ‘आप दूसरो के धन से द्रोह न करें (दूसरो के हिस्से को न लें) धर्म के साधनभूत समस्त यज्ञभागों को लेने की इच्छा न करें । यों कहकर उन्होने कल्याणमय वचनों द्वारा भगवान रूद्र का स्तवन किया और इष्टि द्वारा उन्हें तृप्त करके उस समय उनका विशेष सम्मान किया । तब वे उस पशु को वहीं छोड़कर देवयान मार्ग से चले गये । युधिष्ठिर ! यज्ञ में भगवान रूद्र की भाग परम्परा का बोधक एक श्लोक है, उसे बताता हूं, सुना - ‘देवताओं ने रूद्रदेव के भय से उनके लिये शीघ्र ही सब भागों की अपेक्षा उत्तम एवं सनातन भग देने का संकल्प किया’। जो मनुष्य यहां इस गाथा का गान करते हुए वैतरणी के जल का स्पर्श करता है, उसकी दृष्टि में दवयान मार्ग प्रकाशित हो जाता है । वैशम्पानजी कहते है- राजन ! तदनन्तर महान भागयशाली समस्त पाण्डवों और द्रौपदी ने वेतरणी के जल में उतरकर अपने पितरों का तर्पण किया । उस समय युधिष्ठिर बोले- लोमशजी ! देखिये, इस वैतरणी नदीं में विधिपूर्वक स्नान करने से मुझे तपोबल प्राप्त हुआ है, जिसके प्रभाव से मैं माननीय विषयों से दूर हो गया हूं । संव्रत ! आपकी कृपा से इस समय मुझे सम्पूर्ण लोको का दर्शन हो रहा है । यह तय और स्वाध्याय में लगे हुए महात्मा वैखानस ऋषियों का शब्द है । लोमशजी ने कहा- राजा युधिष्ठिर ! जहां आती हुई इस ध्वनि को तुम सुन रहे हो, वह स्थान यहां से तीन लाख योजन दूर है; अत: अब चुप रहो । राजन ! यह ब्रह्माजी का दिव्य वन प्रकाशित हो रहा है; राजेन्द्र ! यहीं प्रतापी विश्वकर्मा ने यज्ञ किया हैा । उस यज्ञ में ब्रह्माजी में पर्वत और वनप्रान्त सहित सारी पृथ्वी महात्मा कश्यप को दक्षिणारूप में दे दी थी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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