महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 1-10
चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
बन्दी और अष्टावक्र का शास्त्रार्थ, बन्दी की पराजय तथा समंगा में स्नान से अष्टावक्र के अंगो का सीधा होना
अष्टावक्र बोले- भयंकर सेनाओं से युक्त महाराज जनक ! इस सभागार में सग ओर से अप्रतिम प्रभवशाली राजा आकर एकत्र हुए है, परंतु इन सबके बीच में वादियों मे प्रधान बन्दी को नहीं पहचान पाता हूं । यदि पहचान लूं तो अगाध जल में हंस की भांति उन्हें अवश्य पकड़ लूंगा । अपने को अतिवादी मानने वाले बन्दी ! तुमने पराजित हुए पण्डितों को पानी में डुबवा देने का नियम कर रखा है, कितु आज मेरे सामने तुम्हारी बोली बन्द हो जायेगी। जैसे प्रलयकाल के प्रज्वलित अग्नि के सामने नदियों का प्रवाह सूख जाता है; उसी प्रकार मेरे सामने आने पर तुम भी सूख जाओगे- तुम्हारी वादशक्ति नष्ट हो जायेगी । बन्दी ! आज मेरे सामने स्थिर होकर बैठो । बन्दी ने कहा- मुझे सोता हुआ सिंह समझकर न जगाओं ( न छेड़ो ), अपने जबड़ो को चाटता हुआ विषैला सर्प मानो । तुमने पैरों से ठोकर मारकर मेरे मस्तक को कुचल दिया है। अब जबतक तुम डंस लिये नहीं जाते तबतक तुम्हें छुटकारा नहीं मिल सकता, इस बात को अच्छी तरह समझ लो । जो देहधारी अत्यन्त दूर्बल होकर अहंकावश अपने हाथ से पर्वत पर चोट करता है, उसी के हाथ और नख विदीर्ण हो जाते है, उस चोट से पर्वत में घाव होता नहीं देखा जाता है । अष्टावक्र बोले- जैसे सब पर्वत मैनाक से छोटे है, सारे बछड़े बैलो से लघुतर है, उसी प्रकार भूमण्डल के समसत राजा मिथिलानरेश महाराज जनक की अपेक्षा निम्न श्रेणी में है । राजन ! जैसे देवताओं मे महेन्द्र श्रेष्ट है और नदियों मे गंगा श्रेष्ट है, उसी प्रकार सब राजाओं मे एकमात्र आप ही उत्तम है। अब बन्दी को मेरे निकट बुलवाइये । लोमशजी कहते है- युधिष्ठिर ! ( बन्दी के सामने आ जाने पर) राजसभा में गर्जते हुए अष्टावक्र ने बन्दी से कुपित होकर इस प्रकार कहा- ‘मेरी पूछी हुई बात का उत्तर तुम दो और तुम्हारी बात का उत्तर मै देता हूं । तब बन्दी ने कहा- अष्टावक्र ! एक ही अग्नि अनेक प्रकार से प्रकाशित होती है, एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। शत्रुओ का नाश करने वाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का सवामी यमराज भी एक ही है । अष्टावक्र बोले- जो दो मित्रों की भांति सदा साथ विचरते है, वे इन्द्र और अग्नि दो देवता है। परस्पर मित्रभाव रखने वाले देवर्षि नारद और पर्वत भी दो ही है । अश्विनीकुमारों की संख्या दो ही है, रथ के पहिये भी दो ही होते है, तथा विधाता ने (एक दूसरे के जीवनसंगी ) पति और पत्नी भी दो ही बनाये हैं । बन्दी ने कहा- यह सम्पूर्ण प्रजा कर्मवश देवता, मनुष्य और तिर्यक रुप तीन प्रकार का जन्म धारण करती है, ऋक, साम, और जयु- ये तीन वेद ही परस्पर संयुक्त हो बाजपेय आदि यज्ञ कर्मो का निवार्ह करते हैं। अध्वर्युलोक भी प्रात: सवन, मध्यांह सवन ओर सांयसवन भद से तीन सवनों ( यज्ञों का ही अनुष्ठान करते हैा ( कर्मानुसार प्राप्त होने वाले भोगों के बिए स्वर्ग, मृत्यु और नरक ये लोक भी तीन ही बतायें ये है और मुनियों ने सूर्य, चन्द्र और अग्नि रुप तीन ही प्रकार की ज्योतियां हैा ।
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