महाभारत वन पर्व अध्याय 138 श्लोक 18-28
अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
वहां आकर उन्होंने भगवान सूर्य की शरण ली और बड़ी उग्र तपस्या करके उन ब्राह्मणशिरामणी ने सूर्यसम्बन्धी रहस्यमय वैदिक मन्त्र का अनुष्ठान किया। तदनन्तर अग्रभोजी एवं अविनाशी साक्षात भगवान सूर्य ने साकार रूप में प्रकट हो अर्वावसु को दर्शन दिया ।
लोमशजी कहते है- राजन ! अर्वावसु के उस कार्य से सूर्य आदि सब देवता उस पर प्रसन्न हो गये। उन्होंने अर्वावासु का यज्ञ में वरण कराया एवं परावसु को निकलवा दिया । तत्पश्चात अग्नि सूर्य आदि देवताओं ने उन्हे वर देने की इच्छा प्रकट की । तब अर्वावासु ने यह वर मांगा कि ‘मेरे पिताजी जीवित हो जाय । मेरे भाई र्निदोष हो और उन्हे पिता के वघ् कीबात भुल जाय । साथ ही उन्होंने यह भी मांगा की ‘भरद्वाज तथा यवक्रीत दोनों जी उठे और इस सूर्यदेवता सम्बंधी रहस्यमय वेदमन्त्र की प्रतिष्टा हो।‘ द्विजश्रेष्ट अर्वावसु के इस प्रकार वर मांगने पर देवता बोले- ‘ ऐसा ही हो।‘ इस प्रकार उन्होने पूर्वोक्त सभी वर दे दिये । युधिष्ठिर ! इसके बाद पूर्वोक्त सभी मुनि जीवित हो गये। उस संयम यवक्रीत ने अग्नि आदि सम्पूर्ण देवताओं से पूछा- ‘देवेश्वरों ! मैंने वेद का अध्ययन किया था, वेदोक्त व्रतों का अनुष्ठान भी किया है। मैं स्वाध्यायशील और तपस्वी भी हूं, तो भी रैभ्यमुनि इस प्रकार अनुचित रीति से मेरा वघ करने के कैसे समर्थ हो सके’ । देवताओं ने कहा- मुनि यवक्रीत ! तुम जैसी बात कहते हो, वैसा न समझो। तुमने पूर्वकाल में बिना गुरू के ही सुखपूर्वक सब वेद पढ़े है और इन रैभ्य मुनि ने बढ़े क्लेश उठाकर अपने व्यवहार से गुरूजनों को संतुष्ट करके दीर्घकाल तक कष्टसहन पूर्वक उत्तम वेदों का ज्ञान प्राप्त् किया है ।
लोमशजी कहते है- राजन अग्नि आदि देवताओं ने यवक्रीत से ऐसा कहकर उन सबको नूतन जीवन प्रदान करके पुन: स्वर्गलोक को प्रस्थान किया । नृपश्रेष्ट ! यह उन्ही रैभ्यमुनि का पवित्र आश्रम है। यहां के वृक्ष सदा फूल और फलों से लदे रहते है। यहां एक रात निवास करके तुम सब पापों से छुट जाओगे ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशजी तीर्थ यात्रा के प्रसंग में यवक्रीतोपाख्यान विषयक एक सौ अड़तीसवां अध्याय पूरा हुआ ।
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