महाभारत वन पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-20
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चतुश्वत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
द्रौपदी की मूर्छा, पाण्डवों के उपचार से उसका सचेत होना तथा भीमसेन के स्मरण करने पर घटोत्ककच का आगमन
वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! महात्मा पाण्डव अभी कोसभर ही गये होंगे कि पांचालराजकुमारी तपस्विनी द्रौपदी सुकुमारता के कारण थककर बैठ गयी। वह पैदल चलने योग्य कदापि नहीं थी। उस भयानक वायु और वर्षा से पीड़ित हो दु:मखग्न होकर वह मूर्छित होने लगी थी । घबराहट से कॉपती हुई कजरारे नेत्र वाली कृष्णा ने अपने गोल गोल और सुन्दर हाथों से दोनों जांघो को थम लिया । हाथी की सूडं के समान चढ़ाव उतारवाली परस्पर सटी हुई जांघो का साहारा ले केले के वृक्ष की भांति कांपती हुई वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी। सुन्दर अंगोवाली द्रौपदी को टूटी हुई लता की भांति गिरती देख बलशाली नकुल ने दौड़कर थाम लिया । तत्पश्चात नकुल ने कहा- भरतकुलभूषण महाराज ! यह श्याम नेत्र वाली पांचाल राजकुमारी द्रौपदी थककर धरती पर गिर पड़ी है, आप आकर इसे देखिये । राजन ! यह मन्दगती से चलनेवाली देवी दु:ख सहन करने योग्य नहीं है; जो भी इस पर महान दु:ख आ पड़ा है। रास्ते के परिश्रम से यह दुर्बल हो गयी है। आप आकर इसे सान्त्वना दें । वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! नकुल की यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर अत्यनत दुखी हो गये और भीम तथा सहदेव के साथ सहसा वहां दौड़े आये । धर्मात्मा कुन्तीनन्दन ने देखा- द्रौपदी के मुख की कान्ति फीकी पड़ गयी है और उसका शरीर कृश हो गया है। तब वे उसे अंक में लेकर शोकातुर हो विलाप करने लगे । युधिष्ठिर बोले- अहो ! जो सुरक्षित सदनों मे सुसज्जित सुकोमल शय्यापर पर शयन करने योग्य है, वह सुख भोगने की अधिकारीणी परम सुन्दरी कृष्णा आज पृथ्वी वह कैसे सो रही है । जो सुख के श्रेष्ट साधनों का उपभोग करने योग्य है, उसी द्रौपदी ये दोनों सुकुमार चरण और कमल की कान्ति से सुशोभित मुख आज मेरे कारण कैसे काले पड़ गये है । मुझ मूर्ख ने द्यूतक्रीडा में फंसकर यह क्या कर डाला। अहो ! सहस्त्रों मृगसमूहों से भरे हुए इस भयानक वन में द्रौपदी को साथ लेकर हमें विचरना पड़ा है । इसके पिताजी राजा द्रुपद ने इस विशाल लोचना द्रौपदी को यह कहकर हमें प्रदान किया था कि ‘कल्याणि ! तुम पाण्डवों को पतिरूपा में पाकर सुखी होगी।‘ परंतु मुझ पापी की करतुतों से वह सग न पाकर यह परिश्रम, शोक और मार्ग के कष्ट कृश होकर आज पृथ्वी पर पड़ी सो रही है । वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! धर्मराज युधिष्ठिर जब इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय धौम्य आदि समस्त श्रैष्ट ब्राह्मण भी वहां आ पहूंचे । महर्षियों द्वारा शान्ति के लिये मन्त्रपाठ होते समय पाण्डवों ने अपने शीतल हाथों से बार बार द्रौपदी के अंगो को सहलाया । जल का स्पर्श करके बहती हुई शीतल वायु ने भी उसे सुख पहूंचाया। इस प्रकार कुछ आराम मिलने पर पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को धीरे धीरे चेत हुआ । होश मे आकर दीनावस्था पड़ी हुइ तपस्विनी द्रौपदी को पकड़कर पाण्डवों ने मृगचर्म के बिस्तर पर सुलाया और उसे विश्राम कराया। नकुल और सहदेव ने धनुष की रगड़ के चिन्हृ सुशोभित दोनों हाथों द्वारा उसके लाल तलवों से युक्त और उत्तम लक्षणों से अलंकृत दोनों चरणों को धीर धीरे दबाया ।
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