महाभारत वन पर्व अध्याय 148 श्लोक 1-22

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टचत्वारिंशदघिकशततम (148) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टचत्वारिंशदघिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

हनुमान् जीका भीमसेनको संक्षेप से श्रीरामका चरित्र सुनाना

हनुमान् जी कहते हैं-भीमसेन! इस प्रकार स्त्रीका अपहरण हो जानेपर अपने भाईके साथ उसकी खोज करते हुए श्रीरघुनाथजी जनस्थानसे आगे बढ़े। उन्होंने ऋध्यमूक पर्वतके शिखरपर रहनेवाले वानरराज सुग्रीव से भेंट की। वहां सुग्रीवके साथ महात्मा श्रीरघुनाथजीकी मित्रता हो गयी। उन्होंने वालीको मारकर किष्किन्धाके राज्यपर सुग्रीवका अभिषेक कर दिया। राज्य पाकर सुग्रीव ने सीताजीकी खोजके लिये सौ-सौ तथा हजार-हजार वानरोंकी टोली इधर-उधर भेजी। नरश्रेष्ठ! महाबाहो! उस समय करोड़ो वानरोंके साथ मैं भी सीताजीका पता लगाता हुआ दक्षिण दिशाकी ओर गया। तदनन्तर गृर्धजातीय महाबुद्धिमान् सम्पातिने सीताजीके सम्बन्धमें यह समाचार दिया कि रावणके नगरमें विद्यमान हैं। तब मैं अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरघुनाथजी की कार्यसिद्धिके लिये सहसा सौ विस्तृत समुद्र को लांघ गया। भरतश्रेष्ठ! मगर और ग्राह आदिसे भरे हुए उस समुद्रको अपने पराक्रमसे पार करके मैं रावणके नगरमें देवकन्याके समान तेजस्विनी जनकराजनन्दिनी सीतासे मिला। रघुनाथजीकी प्रतिमा विदेहराजकुमारी सीतादेवीसे भेंट करके अटालिका, चहारदिवारी और नगरद्वारसहित समूची लंकापुरी को जलाकर वहां श्रीरामनाकी घोषणा करके मैं पुनः लौट आया। मेरी बात मानकर कमलनयन-भगवान् श्रीरामने बुद्धिपूर्वक विचार करके सैनिकोंकी सलाहसे महासागरपर पुल बंधवाया और करोड़ो वानरोंसे घिरे हुए वे महासमुद्रको पार करके लंकापर जा चढ़े। तदनन्तर वीरवर श्रीरामने उन समस्त राक्षसोंको मारकर युद्धमें समस्त श्लोकोंको रूलानेवाले राक्षसराज रावणको भी भाई, पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित मार ड़ाला। तत्पश्चात् धर्मात्मा, भक्तिमान् तथा भक्तों और सेवकोंपर स्नेह रखनेवाले राक्षसराज विभीषणजी लंकाको राज्यपर अभिशिक्त किया और खोयी हुई वैदिकी श्रुतिकी भांति अपनी पत्नीका वहांसे उद्धार करके महायस्वी रघुनन्दन श्रीराम अपनी उस साध्वी पत्नीके साथ ही बड़ी उतावलीके साथ अपनी अयोध्यापुरीमें लौट आये। इसके बाद उतावलीके साथ अपनी अयोध्यापुरीमें लौट आये। इसके बाद शत्रुओंको भी वशमें करनेवाले नृपश्रेष्ठ भगवान् श्रीराम अवधके राज्यसिंहासनपर आसीन हो उस अजेय अयोध्यापुरीमें रहने लगे। उस समय मैंने कमलनयन श्रीरामसे यह वर मांगा कि 'शत्रुसूदन! जबतक आपकी यह कथा संसारमें प्रचलित रहे, तबतक मैं अवश्‍य जीवित हूं। भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। शत्रुओं दमन करनेवाले भीमसेन! श्रीसीताजीकी कृपासे यहां रहते हुए ही मुझे इच्छानुसार सदा दिव्य भोग प्राप्त हो जाते हैं। श्रीरामजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक इस पृथ्वीपर राज्य किया, फिर वे अपने परम धामको चले गये। निष्पाप भीम! इस स्थानपर गन्धर्व और अप्सराएं वीरवर रघुनाथजीके चरित्रोंको गाकर मुझे आनन्दित करते रहते हैं। कुरूनन्दन! यह मार्ग मनुष्योंके लिये अगम्य है। अतः इस देवसेवित पथको मैनें इसीलिये तुम्हारे लिये रोक रोक दिया था, कि इस मार्गसे जानेपर कोई तुम्हारा तिरस्कार न कर दे याशाप न दे दे; क्योंकि यह दिव्य देवमार्ग है। इसपर मनुष्य नहीं जाते हैं। भारत! तुम जहां जानेके लिये आये हो, वह सरोवर तो यहीं है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत तीर्थंयात्रापर्वमें लोमशतीर्थयात्राके प्रसंगमें हनुमान् जी और भीमसेन संवादनामक एक सौ अड़तालीसवां अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।