महाभारत वन पर्व अध्याय 155 श्लोक 24-34
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चतुष्पञ्चाशदधिकशततम (155) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
उसके तटपर मनस्वी महामना भीमको तथा उनको द्वारा मारे गये बड़े-बड़े नेत्रोंवाले यक्षोंको भी देखा,-जिनके शरीर, नेत्र, भुजाएं और जांघे छिन्न-छिन्न हो गयी थीं, गर्दन कुचल दी गयी थी, महात्मा भीम उस सरोवरके तटपर खडे थे। उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ था। उनकी आंखे स्तब्ध हो रही थी। वे दोनों हाथोंसे गदा उठाये और दांतोंसे ओठ दबाये नदीके तटपर खड़े थे। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो प्रजाके संहारकालमें दण्ड हाथमें लिये यमराज खड़े हों। भीमसेनको उस अवस्थामें देखकर धर्मराजने उन्हें बार-बार हद्यसे लगाया। और मधुर वाणीमें कहा-'कुन्तीनन्दन! यह तुमने क्या कर डाला ? तुम्हारा कल्याण हो। खेदके साथ कहना पड़ता है कि तुम्हारा यह कार्य साहसपूर्ण है और देवताओंके लिये अप्रिय है। 'यदि मेरा प्रिय करना चाहते हो तो फिर ऐसा काम न करना।' भीमसेनको ऐसा उपदेश देकर उन्होंने पूर्वाक्त सौगन्धिक तटपर इधर-उधर भ्रमण करने लगे। इसी समय शिलाओंको आयुधरूपमें ग्रहण किये, बहुत-से विशालकाय उद्यानरक्षक वहां प्रकट हो गये। भारत! उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर, महर्षि लोमश, नकुल-सहदेव तथा अन्यान्य श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको विनयपूर्वक नतमस्तक होकर प्रणाम किया। फिर धर्मराज युधिष्ठिरने उन्हें सान्तवना दी। इससे वे निशाचर राक्षस प्रसन्न हो गये। तदनन्तर वे कुरू-प्रवर पाण्डव धनाध्यक्ष कुबेरकी जानकारीमें कुछ कालतक वहां आनन्दपूर्वक टिके रहे और गन्धमादन पर्वतके शिखरोंपर अर्जुनके आगमनकी प्रतीक्षा करते रहे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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