महाभारत वन पर्व अध्याय 159 श्लोक 20-32

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एकोनषष्टयधिकशततम (159) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोनषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद

पर्वांकी संधि-वेलामें इस पर्वतके उपर मेरी, पणव, शंक और मृदंगोंकी ध्वनि सुनायी देती है। भरतकुलभूषण पाण्डवो! तुम्हें यहीं रहकर वह सब कुछ देखना या सुनना चाहिये। वहां पर्वतके उपर जानेका विचार तुम्हें किसी प्रकार भी नहीं करना चाहिये। भरतश्रेष्ठ! इससे आगे जाना असम्भव हैं। वहां देवताओंकी विहारस्थली है। वहां मनुष्योंकी गति नहीं हो सकती। भारत! यहां थोड़ी-सी भी चपलता करनेवाले मनुष्यसे सब प्राणी द्वेष करते हैं तथा राक्षसलोग उसपर प्रहार कर बैठते हैं। युधिष्ठिर! इस कैलासके शिखरको लांघ जानेपर परम सिद्ध देवर्षियोंकी गति प्रकाशित होती हैं। शत्रुसूदन पार्थ! चपलतावश इससे आगेके मार्गपर जानेवाले मनुष्यको राक्षसगण लोहेकेशूल आदिसे मारते हैं। तात! पर्वोंकी संधिके समय यहां मनुष्योंपर सवार होनेवाले कुबेर अप्सराओंसे घिरकर अपने अतुल वैभवके साथ दिखायी देते हैं। यक्षों तथा राक्षसोंके अधिपति कुबेर जब इस कैलाशशिखरपर विराजमान होते हैं, उस समय उदित हुए सूर्यकी भांति शोभा पाते हैं। उस अवसरपर सब प्राणी उनका दर्शन करते हैं। भरतश्रेष्ठ! पर्वतका यह शिखर देवताओं, दानवों, सिद्धों तथा कुबेरका क्रीड़ा-कानन है। तात! पर्व-संधिके समय गन्धमादन पर्वतपर कुबेरकी सेवामें उपस्थित हुए तुम्बुरू गन्धर्वके सामगानका स्वर स्पष्ट सुनायी पड़ता है। तात युधिष्ठिर! इस प्रकार पर्वसंधिकालमें सब प्राणी यहां अनेक बार ऐसे-ऐसे अद्भुत दृश्योंका दर्शन करते हैं। श्रेष्ठ पाण्डवों! जबतक तुम्हारी अर्जुनसे भेंट न हो, तब तक मुनियों के भोजन करनेयोग्य सरस फलोंका उपभोग करते हुए तुम सब लोग यहां (सानन्द) निवास करो। तात! यहां आनेवाले लोगोंको किसी प्रकार चपल नहीं होना चाहिये। तुम यहां अपनी इच्छाके अनुसार रहकर और श्रद्धाके अनुसार घूम-फिरकर लौट जाओगे और शस्त्रोंद्वारा जीती हुई पृथ्वीका पालन करोगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत यक्षयुद्धपर्वमें आर्ष्टिषेण-युधिष्ठिरसंवादविषयक एक सौ उनसठवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

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