महाभारत वन पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-16

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अष्‍टादश (18) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्‍टादश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

मूर्च्‍छावस्था में सारथि के द्वारा रणभूमि से बाहर लाये जाने पर प्रद्युम्न का अनुताप और इसके लिये सारथि को उपालम्भ देना

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-- बलवानों में श्रेष्ठ प्रद्युम्न जब शाल्व के बाणों से पीड़ित हो ( मूर्च्छित हो ) गये, तब सेना में आये हुए वृष्णिवंशी वीरों का उत्साह भंग हो गया। उन सबको बड़ा दुख हुआ। राजन ! प्रद्युम्न के मूर्च्छित होने पर वृष्णि और अंधकवंश की सारी सेना में हाहाकार मच गया और शत्रु लोग अत्यन्त प्रसन्नता से खिल उठे। दारुक का पुत्र प्रद्युम्न सुशिक्षित था। वह प्रद्युम्न को इस प्रकार मूर्च्छित देख वेगशाली अश्वों द्वारा उन्हें तुरंत रणभूमि से बाहर ले गया। अभी वह रथ अधिक दूर नहीं जाने पाया था, तभी बड़़े-बड़े महारथियों को परास्त करने वाले प्रद्युम्न सचेत हो गये और हाथ में धनुष लेकर सारथि से इस प्रकार बोले-- ‘सूतपुत्र ! आज तूने क्या सोचा है? क्यों युद्ध से मुँह मोड़कर भागा जा रहा है? युद्ध से पलायन करना वृष्णिवंशी वीरों का धर्म नहीं है। ‘सूतनन्दन ! इस महासंग्राम में राजा शाल्व को देखकर तुझे मोह तो नहीं हो गया है? अथवा युद्ध देखकर तुझे विषाद तो नहीं होता है? मुझसे ठीक-ठीक बता ( तेरे इस प्रकार भागने का क्या कारण है?)‘

सूतपुत्र ने कहा - जनार्दनकुमार ! न मुझे मोह हुआ है और न मेरे मन में भय ही समाया है। केशवनन्दन ! मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह राजा शाल्व आपके लिये अत्यन्त भार-सा हो रहा है। वीरवर ! मैं धीरे-धीरे रणभूमि से दूर इसलिये जा रहा हूँ क्योंकि यह पापी शाल्व बड़ा बलवान है। सारथि का यह धर्म है कि यदि शूरवीर रथी संग्राम में मूर्च्छित हो जाय तो वह किसी प्रकार उसके प्राणों की रक्षा करे। आयुष्मान ! मुझे आपकी और आपको मेरी सदा रक्षा करनी चाहिये। रथी सारथि के द्वारा सदा रक्षणीय है, इस कर्तव्य का विचार करके ही मैं रणभूमि से लौट रहा हूँ। महाबाहो ! आप अकेले हैं और इन दानवों की संख्या बहुत है। रुक्मिणीनन्दन ! इस युद्ध में इतने विपक्षियों का सामना करना अकेले आपके लिये कठिन है। कुरुनन्दन ! सूत के ऐसा कहने पर मकरध्वज प्रद्युम्न ने उससे कहा--‘दारुककुमार ! तू रथ को पुनः युद्ध भूमि की ओर लौटा ले चल। सूतपुत्र ! आज से फिर कभी किसी प्रकार भी मेरे जीते-जी रथ को रणभूमि से न लौटाना। ‘वृष्णिवंश में ऐसा कोई ( वीर पुरुष ) नहीं पैदा हुआ है, जो युद्ध छोड़कर भाग जाये अथवा गिरे हुए को तथा 'मैं आपका हूँ‘ यह कहने वाले को मारे।' ‘इसी प्रकार स्त्री, बालक, वृद्ध, रथहीन, अपने पक्ष से बिछड़े हुए तथा जिसके अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गये हों, ऐसे लोगों पर जो हथियार उठाता हो, ऐसा मनुष्य भी वृष्णिकुल में नहीं उत्पन्न हुआ है।' ‘दारुककुमार ! तू सूतकुल में उत्पन्न होने के साथ ही सूतकर्म की अच्छी तरह शिक्षा पा चुका है। वृष्णिवंशी वीरों का युद्ध में क्या धर्म है, यह भी भली भाँति जानता है।' ‘सूतनन्दन ! युद्ध के मुहाने पर डटे हुए वृष्णिकुल के वीरों का सम्पूर्ण चरित्र तुझसे अज्ञात नहीं है; अतः तू फिर कभी किसी तरह भी युद्ध से न लौटना।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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