महाभारत वन पर्व अध्याय 247 श्लोक 1-16

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सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम (247) अध्‍याय: वन पर्व (घोषयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
सेनासहित दुर्योधनका मार्गमें ठहरना और कर्णके द्वारा उसका अभिनन्‍दन

जनमेजय बोले-मुने ! दुर्योधनको शत्रुओंने जीता और बांध लिया । फिर महात्‍मा पाण्‍डवोंने गन्‍धर्वोके साथ युद्ध करके उसे छुडाया । ऐसी दशामें उस अभिमानी और दुरात्‍मा दुर्योधनका हस्तिनापुरमें प्रवेश करना मुझे तो अत्‍यन्‍त कठिन प्रतीत होता है; क्‍योंकि वह अपने शौर्यके विषयमें बहुत डींग हांका करता था, घमंडमें भरा रहता था और सदा गर्वके नशेमें चूर रहता था उसने अपने पौरूष और उदारताद्वारा सदा पाण्‍डवोंका अपमान ही किया था पापी दुर्योधन सदा अहंकारकी ही बातें करता था । पाण्‍डवोंकी सहायतासे मेरे जीवनकी रक्षा हुई, यह सोचकर तो वह लज्जित हो गया होगा; उसका हृदय शोकसे व्‍याकुल हो उठा होगा । वैशम्‍पायनजी ! ऐसी स्थितिमें उसने अपनी राजधानीमें कैसे प्रवेश किया ? यह विस्‍तार पूर्वक कहिये ।वैशम्‍पायनजी बोले-राजन् ! धर्मराजसे विदा होकर धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन लज्‍जासे मुंह नीचे किये अत्‍यन्‍त दुखी और खिन्‍त्र होकर वहांसे चल दिया । राजा दुर्योधनकी बुद्धि शोकसे मारी गयी थी । वह अपने अपमानपर विचार करता हुआ चतुरंगिणी सेनाके साथ नगरकी ओर चल पड़ा । रास्‍तेमें एक ऐसा स्‍थान मिला, जहां घास और जलकी सुविधा थी दुर्योधन अपने वाहनोंको वहीं छोड़कर एक सुन्‍दर एवं रमणीय भू भागमें अपनी रूचिके अनुसार ठहर गया । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोको भी उसने यथास्‍थान ठहरनेंकी आज्ञा दे दी । राजा दुर्योधन अग्निके समान उद्दीप्‍त होनेवाले (सोनेके) पलंगपर बैठा हुआ था । रात्रिके अन्‍तमें चन्‍द्रमापर राहु-द्वारा ग्रहण लग जानेपर जैसे उसकी शोभा नष्‍ट हो जाती है, वही दशा उस समय दुर्योधनकी भी थी । उस समय कर्ण्‍ने समीप आकर दुर्योधनसे इस प्रकार कहा- ‘गान्‍धारीनन्‍दन ! बड़े सौभाग्‍य की बात है कि तुम जीवित हो । सौभाग्‍य वश हम लोग पुन: एक दूसरेसे मिल गये । भाग्‍योंसे तुमने इच्‍छानुसार रूप धारण करने वाले गन्‍धर्वोपर विजय पायी,यह और भी प्रसन्‍त्रता की बात है । ‘कुरूनन्‍दन ! मैं तुम्‍हारे सम्‍पूर्ण महारथी भाइयोंको, जो शत्रुओंपर विजय पा चुके हैं, युद्धके लिये उद्यत तथा पुन: विजयकी अभिलाषासे युक्‍त देख रहा हूँ, युद्धके लिये उद्यत तथा पुन: विजयकी अभिलाषासे युक्‍त देख रहा हूँ, यह भी सौभाग्‍य का ही सूचक है । ‘मैं तो तुम्‍हारे देखत-देखते ही समस्‍त गन्‍धर्वोसे पराजित होकर भाग गया था । तितर-बितर होकर भागती हुई सेनाको स्थिर न रख सका । ‘बाणोंके आघातसे मेरा सारा शरीर क्षत विक्षत हो गया था । समस्‍त अंगोंमें बडी वेदना हो रही थी; इसीलिये मुझे भागना पड़ा । भारत ! तुमलोग,जो उस अमानुषिक युद्धसे छूटकर यहां स्‍त्री, सेना और वाहनों सहित सकुशल तथा क्षति से रहित दिखाई देते हो; यह बात मुझे बडी अद्भुत जान पड़ती है । ‘भरतनन्‍दन महाराज ! इस युद्धमें भाइयो सहित तुमने जो पराक्रम कर दिखाया है, उसे करनेवाला दूसरा कोई पुरूष इस संसारमें नहीं है’ । वैशम्‍पायनजी कहते हैं–राजन् ! कर्णके ऐसा कहनेपर राजा दुर्योधन उस समय अश्रुगद्गद वाणीद्वारा ( कर्ण ) से इस प्रकार बोला ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्‍तर्गत घोषयात्रापर्वमें कर्णदुर्योधनसंवादविषयक दो सौ सैंतालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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