महाभारत वन पर्व अध्याय 272 श्लोक 36-54

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द्विसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (272) अध्‍याय: वन पर्व (जयद्रथविमोक्षण पर्व )

महाभारत: वन पर्व: द्विसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद
भीमद्वारा बंदी होकर जयद्रथका युधिष्ठिरके सामने उपस्थित होना, उनकी आज्ञासे छूटकर उसका गंगाद्वारमें तप करके भ्‍गवान् शिवसे वरदान पाना तथा भगवान् शिवद्वारा अर्जुनके सहायक भगवान् श्रीकृष्‍णकी महिमाका वर्णन

‘उस समय सम्‍पूर्ण दिशाओंमें पानी भर जानेसे चारों ओर एकाकार जलमय समुद्र ही दृष्टिगोचर होता है । उस एकार्णवके जलमें समस्‍त चराचर जगत् नष्‍ट हो जाता है । चन्‍द्रमा, सूर्य और वायु भी विलीन हो जाते हैं । ग्रह और नक्षत्रोंका अभाव हो जाता है । ‘एक हजार चतुर्यगी समाप्‍त होनेपर उपर्यक्‍त एकार्णवके जलमें यह पृथ्‍वी डूब जाती है । तत्‍पश्‍चात् नारायण नामसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीहरि उस एकावर्णके जलमें शयन करनेके हेतु अपने लिये निशाकालोचित अन्‍धकार ( तमोगुण ) से व्‍याप्‍त महारात्रिका निर्माण करते हैं । उन भगवान् के सहस्‍त्रों नेत्र, सहस्‍त्रों चरण और सहस्‍त्रों मस्‍तक हैं । वे अन्‍तर्यामी पुरूष हैं ओर इन्द्रियातीत होनेपर भी शयन करनेकी इच्‍छासे उन शेषनागको अपना पर्यंक बनाते हैं, जो सहस्‍त्रों फणोंसे विकटाकार दिखाई देते हैं । वे शेषनाग एक सहस्‍त्र प्रचण्‍ड सूर्योंके समूहकी भाँति अनन्‍त एवं असीम प्रभा धारण करते हैं । उनकी कान्ति कुन्‍द पुष्‍प, चन्‍द्रमा, मुक्‍ताद्दार, गोदुग्‍ध, कमलनाल तथा कुमुद-कुसुमके समान उज्‍ज्‍वल है । उन्‍हींकी शय्या बनाकर भगवान् श्रीहरि शयन करते हैं । ‘तत्‍पश्‍चात् सृष्टिकालमें सत्‍वगुणके आधिक्‍यसे भगवान् योगनिद्रासे जाग उठे । जागनेपर उन्‍हें यह समस्‍त लोक सूना दिखायी दिया । महर्षिगण भगवान् नारायणके सम्‍बन्‍धमें यहां इस श्‍लोका उदाहरण दिया करते हैं। जल भगवान् का शरीर है, इसीलिये उनका नाम ‘नार’ सुनते आये हैं । वह नार ही उनका अयन ( गृह ) है अथवा उसके साथ एक होकर वे रहते हैं, इसीलिये उन भगवान् को नारायण कहा गया है’ । ‘तत्‍पश्‍चात प्रजाकी सृष्टिके लिये भगवान् ने चिन्‍तन किया । इस चिन्‍तनके साथ ही भगवान् की नाभिसे सनातन कमल प्रकट हुआ । ‘उस नाभिकमलसे चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ । उस कमलपर बैठे हुए लोकपितामह ब्रह्माजीने सहसा सम्‍पूर्ण जगतको शून्‍य देखकर अपने मानसपुत्रके रूपमें अपने ही जैसे प्रभावशाली मरीचि आदि नौ महार्षियोंको उत्‍पन्‍त्र किया ।‘उन महर्षियोंने स्‍थावर-जंगमरूप सम्‍पूर्ण भूतोंकी तथा यक्ष, राक्षस, भूत पिशाच, नाग और मनुष्‍योंकी सृष्टि की । ‘ब्रह्माजीके रूपसे भगवान् सृष्टि करते हैं । परमपुरूष नारायण रूपसे इसकी रक्षा करते हैं तथा रूद्रस्‍वरूपसे सबका संहार करते हैं । इस प्रकार प्रजापालक भगवान् की ये तीन अवस्‍थाएं हैं । ‘सिन्‍धुराज ! क्‍या तुमने वेदोंके पारगंत ब्रह्मर्षियोंके मुखसे अद्भुतकर्मा भगवान् विष्‍णुका चरित्र नहीं सुना है ? ‘समस्‍त भूमण्‍डल सब ओरसे जलमें डूबा हुआ था । उस समय एकार्णवसे उपलक्षित एकमात्र आकाशमें पृथ्‍वीका पता लगानेके लिये भगवान् इस प्रकार विचर रहे थे, जैसे वर्षाकालकी रातमें जुगनू सब ओर उड़ता फिरता है । वे पृथ्‍वीको कहीं स्थिर रूपसे स्‍थापित करनेके लिये उसकी खोज कर रहे थे ।‘पृथ्‍वीको जलमें डूबी हुई देख भगवान् ने मन-ही-मन उसे बाहर निकालनेकी इच्‍छा की । वे सोचने लगे, ‘कौन-सा रूप धारण करके मैं इस जलसे पृथ्‍वी का उद्धार करूँ’ ।‘इस प्रकार मन-ही-मन चिन्‍तन करके उन्‍होंने दिव्‍य दृष्टिसे देखा कि जलमें क्रीड़ा करनेके योग्‍य तो वराह रूप है; अत: उन्‍होंने उसी रूपका स्‍मरण किया । ‘वेदतुल्‍य वैदिक वाडाय वराहरूप धारण करके भगवान्- ने जलके भीतर प्रवेश किया । उनका वह विशाल पर्वताकार शरीर सौ योजन लंम्‍बा और दस योजन चौडा था । उनकी दाढ़ें बडी तीखी थीं । उनका शरीर देदीप्‍यमान हो रहा था । भगवान् का कण्‍ठ स्‍वर महान् मेघोंकी गर्जनाके समान गम्‍भीर था । उनकी अग्‍ड़कान्ति नील जलधरके समान श्‍याम थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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