महाभारत वन पर्व अध्याय 280 श्लोक 32-48

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अशीत्यधिकद्वशततम (280) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: अशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद

दोनों नख औ दाँतों के आघात से क्षत-विक्षत हो रक्त से लथपथ हो रहे थे। उस समय वे दोनों वीर खिले हुए पलास के दो वृक्षों की भाँति शोभा पाते थे। जब युद्ध में उन दोनों में कोई अनतर नहीं दिखासी दिया, तब हनुमानजी ने सुग्रीव की पहचान के लिये उनके गले में एक माला डाल दी। कण्ठ में पड़ी हुई उस माला से वीर सुग्रीवउस समय मेघपंक्ति से सुशोभित महापर्वत मलस की भाँति शोभा पा रहे थे। महाधनुर्धर श्रीरामचन्द्रजी सुग्रीव को चिन्ह धारण किये देख बाली को लक्ष्य बनाकर अपना महान् धनुष खींचा। उस धनुष की टंकार मशीन की भयंकर आवाज के समान जान पडत्रती थी। उसे सुनकर बाली भयभीत हो उठा। इतने में ही रीराम के बाण ने उसकी छाती पर भारी चोट की। इससे बाली का वक्षःस्थल विदीर्ण हो गया और वह अपने मुँह से रक्तवमन करने लगा। सामने ही उसे लक्ष्मण के साथ खड़े हुए श्रीराम दिखाई दिये। तब वह (छिपकर आघात करने के कारण) श्रीरामचन्द्रजी की निन्दा करके पृथ्वी पर गिर पड़ा और मूर्छित हो गया। तारा ने चन्द्रमा के समान तेजस्वी अपने वीर पति बाली को प्राणहीन होकर पृथ्वी पर पड़ा देखा । बाली के मारे जाने पर अनाथ हुई किष्किन्धापुरी तथा चन्द्रमुखी तारा सुग्रीव को प्राप्त हुई। परम बुद्धिमान श्रीरामचन्द्रजी ने माल्यवान् पर्वत की सुन्दर घाटी के चार महीनों तक निवास किया। समय-समय पर सुग्रीव भी उनकी सेवा में उपस्थित होते रहते थे। इधर काम के वशीभूत हुए रावण ने भी लंकापुरी में पहुँचकर सीता को अशोक वाटिका के निकट तपस्वी मुनियों के आश्रम की भाँति शानितर्पूएा तथा नन्दनवन के समान रमणीय भवन में ठहराया। पति का निरन्तर चिन्तन करते-करते सीता का शरीर दुर्बल हो गया था। वे तपस्विनी वेश में वहाँ रहती थीं। उपवास और तपस्या करने का उनका स्वभाव सा बन गया था। विशाल नेत्रों वाली जानकी वहाँ फल-मूल खाकर बड़े दुःख से दिन बिताती थी ।राक्षसराज रावण ने सीता की रक्षा के लिये कुछ राक्षसियों को नियुक्त किया था, जो भाला, तलवार, त्रिशूल, फरसर, मुद्गर और जलती हुई लुआठी लिये वहाँ पहरा देती थी। उनमें से किसी के दो आँखें थी किसी के तीन। किसी के ललाट में ही आँखें थीं, किसी के बहु बड़ी जिह्ना थी। तो किसी के जीभ थी ही नहीं। किसी के तीन स्तन थे तो किसी का एक पैर। कोई अपने सिर पर तीन जटाएँ रखती थी तो किसी के एक ही आँख थी। ये तथा दूसरी बहुत सी राक्षसियाँ निद्रा और आलस्य को छोड़कर दिन-रात सीता को घेरे रहती थीं। उनकी आँखें आग की तरह प्रज्वलित होती थीं और सिर के बाल ऊँटों के समान रूखे तथा भूरे थे। वे पिशाची स्त्रियाँ देखने में बड़ी भयंकर थीं। उनका स्वर अत्यन्त दारूण था। उनके मुख से जो स्वर और व्यन्जन निकलते थे, वे बड़े हीकठोर होते थे। वे राक्षसियाँ निम्नांकित बातें कहकर विशाल नेत्रोंवाली सीता को सदा डाँटती-फटकारती रहती थीं- ‘अरी ! यह हमारे स्वामी की अवहेलना करके अब तक यहाँ जीवित कैसे है ,? हम इसे चीर डालें। इसे तिल-तिल काटकर खा जायँ’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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