महाभारत वन पर्व अध्याय 282 श्लोक 37-53

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द्वयशीत्यधिकद्वशततम (282) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद

श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर वायुपुत्र हनुमानजी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- ‘श्रीराम ! मैं आपको प्रिय समाचार सुना रहा हूँ। मैंने जनकनन्दिनी सीता का दर्शन किया है। ‘पर्वत, वन तथा आकरों सहित सम्पूर्ण दक्षिण दिशा में श्रीसीताजी का अनुसंधान करके जब हमलोग थक गये और यहाँ लौटने का समय व्यतीत हो गया, तब हमें एक बहुत वड़ी गुफा दिखायी दी। ‘वह कई योजन लंबी थी। उसमें अन्धकार भरा हुआ था। उसके भीतर घने जंगल थे। उस गहन गुफा में बहुत से कीड़े रहा करते थे। उसमें प्रवेश करके हमने बहुत दूर तक का रास्ता पार कर लिया। तत्पश्चात् सूर्य के प्रकाश का दर्शन हुआ। उसी गुफा के अन्दर एक दिव्य भवन शोभा पा रहा था। ‘रघुनन्दन ! वह सुन्दर भवन दैत्यराज मय का निवास स्थान बताया जाता है। उसमें प्रभावती नाम की एक तपस्विनी तप कर रही थी। ‘उसने हमें अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ तथा भाँति-भाँति के पीने योग्य रस दिये। उन्हें खाकर हमें नूतन बल प्राप्त हुआ। फिर उसी के बताये हुए मार्ग से जब हम गुफा से बाहर निकले, तब हमें लवण समुद्र के निकटवर्ती सह्य, मलय और दर्दुर नामक महान् पर्वत दिखायी दिये। ‘फिर हम लोग मलयाचल पर चढ़कर समुद्र की ओर देखने लगे। उसकी विशालता देखकर हमारा हृदय विषाद से भर गया। हम खिन्न औी व्यथित हो गये। हमें जीवन की कोई आशा न रही। ‘उस महासागर का विस्तार कई सौ योजन में था। उसमें तिमि, मगर और बड़े-बड़े मत्स्य निवास करते थे। उसके इस स्वरूप का समरण कर हम सब लाग बहुत दुखी हो गये। ‘अन्त में अनशन करके प्राण त्याग देने का निश्चय लेकर हम सब लोग वहाँ बैइ गये। फिर आपस में बातचीत होने लगी और बीच में जटायु का प्रसंग छिड़ गया। ‘इतने में ही हमने दूसरे गरुड़ की भाँति एक भयंकर पक्षी को देखा, जो पर्वतशिखर के समान जान पड़ता था। उसका स्वरूप बड़ा डरावना था। ‘वह पक्षी हमें खा जाने की युक्ति सोचने लगा। फिर हमारे पास आकर- ‘अजी ! कौन मेरे भाई जटायु की बात कर रहा है। मैं उसका बड़ा भाई सम्पाती हूँ। हूम दोनों एक दूसरे से होड़ लगाकर आकाश में सूर्यमण्डल तक पहुँने के लिये उड़े थे। ‘इससे मेरी ये दोनों पाँखें जल गयीं, परंतु जटायु के पंख नहीं जले। तबसे दीर्धकाल व्यतीत हो गया। उन्हीं दिनों मैंने अपने प्रिय भाई गृधराज जटायु को देखा था पंख जल जाने से मैं इसी पर्वत पर गिर पड़ा’। ‘सम्पाति जब इस तरह की बातें कर रहा था, उस समय हम लोगों ने बताया कि जटायु मारे गये। साथ ही हमने संक्षेप में आपके ऊपर आये हुए संकट का समाचार भी निवेदन किया। ‘राजन् ! यह अत्यन्त अप्रिय वृत्तान्त सुनकर उस सम्पाति के मन में बड़ा खेद हुआ। शत्रुदमन ! उसने पुनः हमलोगों से पूछा- ‘श्रेष्ठ वानरगण ! वे श्रीरात कौन हैं, सीता कैसी है और जटायु किस प्रकार मारे गये ? ये सब बातें मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ’ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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