महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 17-34
एकोनत्रिंश (29) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
जो उत्पन्न क्रोध को अपनी बुद्धि से दबा देता है, उसे तत्वदर्शी विद्वान तेजस्वी मानते हैं। सुन्दरी ! क्रोधी मनुष्य किसी कार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है ( अर्थात क्या करना चाहिये ) और क्या नहीं करना चाहिये। क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषों का वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनों को कटु वचनों द्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुष को चाहिये कि वह क्रोध को अपने से दूर रखे। दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता- ये गुण हैं। जो मनुष्य क्रोध से दबा हुआ है, वह इन गुणों की सहज में ही नहीं पा सकता। क्रोध का त्याग करके मनुष्य भली- भाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे ! क्रोधी पुरुषों के लिये समय के उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है। मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा मानते हैं। परंतु रजोगुण जनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है। अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोध का परित्याग करे। अपने वर्णधर्म के अनुसार न चलने वाला मनुष्य ( अपेक्षाकृत ) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा- यह निश्चय है। साध्वी द्रौपदी ! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणों का उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवों में कभी सन्धि नहीं हो सकती; क्योंकि झगड़े की जड़ तो क्रोध ही है। यदि कोई अपने को सतावे तो स्वयं भी उसको सतावें। औरों की तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपने को मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़़ें; ऐसी धारणा रखने के कारण सब प्राणियों का ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है। यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायें तो एक मनुष्य दूसरे के द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदले में उसे गाली दे सकता है। मार खाने वाला मनुष्य बदले में मार सकता है। एक का अनिष्ट होने पर वह दूसरे का भी अनिष्ट कर सकता है। पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को। कृष्णे ! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं भी शान्ति नहीं रहेगी। शुभानने ! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा सन्धिमूलक ही है। द्रौपदी ! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाये तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायेगा। अतः यह समझ लो कि क्रोध प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने ! पुरुष को सभी प्राणियों पर क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध को काबू में रखता है, वही विद्वान और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है।
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