महाभारत वन पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-15

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एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

राजा ऋतुपर्ण विदर्भदेष को प्रस्थान, राजा नल के विषय में वार्ष्‍णेय का विचार और बाहुक की अद्भुत अष्वसंचालन-कला से वार्ष्‍णेय और ऋतुपर्ण को प्रभावित होना

बृहदश्व मुनि कहते हैं-युधिष्ठिर ! सुदेव की वह बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण के मधुर वाणी से सान्त्वना देते हुए बाहुकसे कहा- ‘बाहुक ! तुम अश्वविद्या के तत्वज्ञ हो, यदि मेरी बात मानो तो मैं दमयन्ती के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये एक ही दिन में विदर्भदेश की राजधानी में पहुंचना चाहता हूं। कुन्तीनन्दन ! राजा ऋतुपर्ण के ऐसा कहने पर राजा नल का मन अत्यन्त दुख से विदीर्ण होने लगा। महामना नल बहुत देर तक किसी भारी चिंता में निमग्न हो गये। वे सोचने लगे-‘क्या दमयन्ती ऐसी बात कह सकती है? अथवा सम्भव है, दुःख से मोहित होकर वह ऐसा कार्य कर ले। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने मेरी प्राप्ति के लिये यह महान् उपाय सोच निकाला हो ? ‘तपस्विनी एवं दीन विदर्भराजकुमारी को मुझ नीच एवं पापबुद्धि पुरूष ने धोखा दिया है, इसीलिये वह ऐसा निष्ठुर कार्य करने को उद्यत हो गयी है। संसार में स्त्री का चंचल स्वभाव प्रसिद्ध है। मेरा अपराध भी भयंकर है। असम्भव है मेरे प्रवास से उसका हार्दिक स्नेह कम हो जाता हो, अतः वह ऐसा भी कर ले। ‘क्योंकि पतली कमरवाली वह युवती मेरे शोक से अत्यन्त उद्विग्न हो उठी होगी और मेरे मिलने की आशा न होने के कारण उसने ऐसा विचार कर लिया होगा, परन्तु मेरा हृदय कहता है कि वह कभी ऐसा नहीं कर सकती। विशेषतः वह संतानवती है। इसलिये भी उससे ऐसी आशा नहीं की जा सकती । ‘इसमें कितना सत्य और असत्य है-इसे में वहां जाकर ही निश्चितरूप से जान सकूंगा, अतः मैं अपने लिये ही ऋतुपर्ण की इस कामना को पूर्ण करूंगा’। मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके दीनहृदय बाहुकने दोनों हाथ जोड़कर राजा ऋतुपर्ण से इस प्रकार कहा-‘नरेश्वर ! पुरूषसिंह ! मैंने आपकी आज्ञा सुनी है, मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि मैं एक ही दिन में विदर्भदेश की राजधानी में आपके साथ जा पहुंचूगा’। युधिष्ठिर ! तदनन्तर बाहुकने अश्वशाला में जाकर राजा ऋतुपर्ण की आज्ञा से अश्वों की परीक्षा की। ऋतुपर्ण बाहुक को बार-बार उत्तेजित करने लगे, अतः उसने अच्छी तरह विचार करके अश्वों की परीक्षा ली और ऐसे अश्वों को चुना, जो देखने में दुबले होने पर भी मार्ग तय करने में शक्तिशाली एवं समर्थ थे। वे तेज और बल से युक्त थे। वे अच्छी जाति के और अच्छे स्वभाव के थे। उनमें अशुभ लक्षणों का सर्वथा अभाव था। उनकी नाक मोटी और थूथन (ठोड़ी) चैड़ी था। वे वायु के समान वेगशाली सिन्धुदेश के घोडे़ थे। वे इस आवर्त (भंवरियों) के चिन्हों से युक्त होने के कारण निर्दोष थे। उन्हें देखकर राजा ऋतुपर्ण ने कुछ कुपित होकर कहा- ‘क्या तुमसे ऐसे ही घोडे़ चुनने के लिये कहा था, तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो। ये अल्पबल और शक्तिवाले घोड़े कैसे मेरा इतना बड़ा रास्ता तय कर सकेंगे ? ऐसे घोड़ों से इतनी दूर तक कैसे रथ ले जाया जायगा ?’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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