महाभारत वन पर्व अध्याय 82 श्लोक 20-42

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द्वयशीतितम (82) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्यों के देवाधिदेव ब्रह्मजी का त्रिलोकविख्यात तीर्थ है, जो ‘पुष्कर’ नाम से प्रसिद्ध है। उसमें कोई बड़भागी मनुष्य प्रवेश ही प्रवेश कर पाता है। महामते कुरूनन्दन ! पुष्कर में तीनों समय दस सहस्त्र कोटि (दस खरब) तीर्थो का निवास रहता है। विभो ! वहां आदित्य, वसु, रूद्र, साध्य, मरूद्गण, गन्धर्व, और अप्सराओं की नित्य संनिधि रहती है। महाराज ! वहां तप करके देवता, दैत्य और ब्रह्मर्षि महान् पुण्य से सम्पन्न हो दिव्य योग से युक्त होते हैं। जो मनस्वी पुरूष मन से ही पुष्कर तीर्थ में जाने की इच्छा करता है, उसके स्वर्ग के प्रतिबन्धक सारे पाप मिट जाते हैं और वह स्वर्गलोक में पूजित होता है। महाराज ! उस तीर्थ में कमलासन भगवान् ब्रह्मजी नित्य ही बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं। महाभाग ! पुष्कर में पहले देवता तथा ऋषि महान् पुण्य सम्पन्न हो सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। जो वहां स्नान करता तथा देवताओं ओर पितरों की पूजा में संलग्न रहता है, उस पुरूष को अश्वमेघ से दस गुना फल प्राप्त होता है; ऐसा मनीषीगण कहते हैं। भीष्म ! पुष्कर में जाकर कम से कम ब्राह्मण को अवश्य भोजन कराये। उस पुण्यकर्म से मनुष्य इहलोक और परलोक में भी आनंद का भागी होता है। मनुष्य साग, फल तथा मूल जिसके द्वारा स्वयं प्राण यात्रा निर्वाह करता है, वही श्रद्धाभाव से दूसरों के दोष न देखते हुए ब्राह्मणों को दान करे। उसी के विद्वान् पुरूष अश्वमेघ यज्ञ का फल पाता है। नृपश्रेष्ठ ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अथवा शुद्र जो कोई भी महात्मा ब्रह्मजी के तीर्थ में स्नान कर लेते हैं, वे फिर किसी योनि में जन्म नहीं लेते हैं। विशेषतः कार्तिक मास की पूर्णिमा को जो पुष्कर तीर्थ में स्नान के लिये जाता है, वह मनुष्य ब्रह्मधर्म में अक्षय लोकों को प्राप्त होता है। स्त्री अथवा पुरूष ने जन्म से लेकर वर्तमान अवस्था तक जितने भी पाप किये हैं, पुष्करतीर्थ में स्नान करनेमात्र वे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। राजन् ! जैसे भगवान् मधुसूदन (विष्णु) सब देवताओं के आदि हैं, वैसे ही पुष्कर सब तीर्थों का आदि कहा जाता है। पुष्कर में पवित्रतापूर्वक संयम नियम के साथ बारह वर्षोतक निवास करके मानव सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता और ब्रह्मलोक को जाता है। जो पूरे सौ वर्षो तक अग्निहोत्र करता है और जो कार्तिक की एक ही पूर्णिमा को पुष्कर में वास करता है, दोनों का फल बराबर है। तीन शुभ्र पर्वतशिखर, तीन सोते और तीन पुष्कर ये आदिसिद्ध तीर्थ हैं। ये कब किस कारण से तीर्थ माने गये ? इसका हमें पता नहीं है। पुष्कर में जाना अत्यन्त दुलर्भ है, पुष्कर में तप अत्यन्त दुलर्भ है, पुष्कर में दान देने का सुयोग तो और भी दुलर्भ है और उसमें निवास का सौभाग्य तो अत्यन्त ही दुष्कर है। वहां इन्द्रियसंयम और नियमित आहार करते हुए बारह रात रहकर तीर्थ की परिक्रमा करने के पश्चात् जम्बूमार्ग को जाय। जम्बूमार्ग देवताओं, ऋषियों तथा पितरों से सेवित तीर्थ है। उसमें जाकर मनुष्य समस्त मनोवांछित भागों से उत्पन्न हो अश्वमेघयज्ञ का फल आता है। वहां पांच रात निवास करने से मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है उसे कभी दुर्गति नहीं प्राप्त होती, वह उत्तम सिद्धि पा लेता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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