महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 94-112

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पञ्चाशीतितम (85) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: पञ्चाशीतितम अध्याय: श्लोक 94-112 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! मनुष्य की हड्डी जबतक गंगाजल का स्पर्श करती है, तबतक वह पुरूष स्वर्गलोक में पूजित होता है। जितने पुण्य-तीर्थ हैं और जितने पुण्य मंदिर हैं, उन सबकी उपासना (सेवन) से पुण्यलाभ करके मनुष्य देवलोक का भागी होता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, भगवान् विष्णु से बढ़कर कोई देवता नहीं और ब्राह्मणों से उत्तम कोई वर्ण नहीं है; ऐसा ब्रह्माजी का कथन है। महाराज ! जहां गंगा बहती हैं, वही उत्तम देश है और वही तपोवन है। गंगा के तटवर्ती स्थान को सिद्धि क्षेत्र समझना चाहिये। इस सत्य सिद्धान्त को ब्राह्मण आदि द्विजों, साधु पुरूषों पुत्र, सुहृदों, शिष्यवर्ग तथा अपने अनुगत मनुष्यों के मान में कहना चाहिये। यह गंगा-महात्मय धन्य, पवित्र स्वर्गप्रद और परम उत्तम है। वह पुण्यदायक, रमणीय, पावन, उत्तम धर्मसंगत और श्रेष्ठ है। यह महर्षियों का गोपनीय रहस्य है। सब पापों का नाश करनेवाला है। द्विजमण्डली में इस गंगा-माहात्मय का पाठ करके मनुष्य निर्मल हो स्वर्गलोक में पहुंच जाता है। यह तीर्थसमूहों की महिमा का वर्णन परम उत्तम, सम्पतिदायक, स्वर्गप्रद, पुण्यकारक, शत्रुओं का निवारण करनेवाला, कल्याणकारक तथा मेधशक्तियों को उत्पन्न करनेवाला है।। इस तीर्थ महात्मय का पाठ करने से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त होता है, धनहीन को धन मिलता है, राजा इस पृथ्वी पर विजय पाता है और सब वैश्य को व्यापार में धन मिलता है। शूद्र मनोवांछित वस्तुएं पाता है और ब्राह्मण इसका पाठ करे तो वह समस्त शास्त्रों का पारंगत विद्वान् होता है। जो मनुष्य तीर्थों के इस पुण्य माहात्मय को प्रतिदिन सुनता है, वह पवित्र हो पहले के अनेक जन्मों की बातें याद कर लेता है और देहत्याग के पश्चात् स्वर्गलोक में आनंद का अनुभव करती है। भीष्म ! मैंने यहां गम्य और अगम्य सभी प्रकार के तीर्थों का वर्णन किया है। सम्पूर्ण तीर्थों के दर्शन की इच्छा पूर्ण करने के लिये मनुष्य जहां जाना सम्भव न हो, उन अगम्य तीर्थों में मन से यात्रा करे अर्थात् मन से उन तीर्थो का चिन्तन करे। वसुगण, साध्यगण, मरूदग्‍ण, दोनों अश्विनीकुमार तथा देवोपम महर्षियों ने भी पुण्य-लाभ की इच्छा से उन तीर्थों का स्नान किया है। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले कुरूनन्दन ! इसी प्रकार तुम भी विधिपूर्वक शौच-संतोषादि नियमों कापालन करते और पुण्य से पुण्य को बढ़ाते हुए उन तीर्थों की यात्रा करो। आस्तिकता और वेदों के अनुशीलन से पहले अपने इन्द्रियों को पवित्र करके शास्त्रज्ञ साधु पुरूष ही उन तीर्थों को प्राप्त करते हैं। कुरूनन्दन जो ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन नहीं करता, जिसने अपने चित्त को वश में नहीं किया, जो अपवित्र आचार विचारवाला और चोर है, जिसकी बुद्धि वक्र है, ऐसा मनुष्य श्रद्धा न होने के कारण तीर्थों में स्नान नहीं करता। तुम धर्म और अर्थ के ज्ञात तथा नित्य सदाचार में तत्पर रहनेवाले हो। धर्मज्ञ ! तुमने पिता-पितामह-प्रपितामह ब्रह्मा आदि देवता तथा महर्षिगण इन सबको सदा स्वर्धम पालन से संतुष्ट किया है, अतः इन्द्र के समान तेजस्वी नरेश ! तुम वसुओं के लोक में जाओगे। भीष्म ! तुम्हें इस पृथ्वी पर विशाल एवं अक्षय कीर्ति प्राप्त होगी। नारदजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! ऐसा कहकर भीष्मजी की अनुमति ले संतुष्ट हुए भगवान् पुलस्त्य मुनि प्रसन्न मन से वहीं अन्र्तधान हो गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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