महाभारत वन पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-19

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एकनवतितम (91) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायनजीत कहते हैं-कौरवनन्दन ! जब धौम्य ऋषि इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय महातेजस्वी महर्षि लोमश वहां आये। जैसे स्वर्ग में इन्द्र के आने पर समस्त देवता उठकर खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार ज्येष्ठ पाण्डव राजा युधिष्ठिर, उनके समुदाय के अन्य लोग तथा वे ब्राह्मण भी उन महाभाग लोमश को आया देख उनक स्वागत के लिये उठकर खड़े हो गये। धर्मनन्दन युधिष्ठिर ने यथायोग्य उनका पूजन करके उन्हें आसनपर बिठाया और वहां आने तथा वन में घूमने का प्रयोजन पूछा। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर महामना महर्षि लोमश बड़े प्रसन्न हुए और अपनी मधुर वाणी द्वारा पाण्डवों का हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार बोले- ‘कुन्तीनन्दन ! मैं यों ही इच्छानुसार सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता हूं। एक दिन मैं इन्द्र के भवन में गया और वहां देवराज इन्द्र से मिला। ‘वहां मैंने तुम्हारे भ्राता सव्यसाची अर्जुन को भी देखा, जो इन्द्र के आधे सिंहासन पर बैठे हुए थे। वहां उन्हें इस दशा में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। ‘पुरूषसिंह युधिष्ठिर ! तुम्हारे भाई अर्जुन को इन्द्र के सिंहासन पर बैठा देख जब मैं आश्चर्यचकित हो रहा था, उसी समय देवराज इन्द्र ने मुझसे कहा-‘मुने ! तुम पाण्डवों के पास जाओ’। ‘उन इन्द्र के आदेश से मैं भाइयोंसहित तुम्हें देखने के लिये शीघ्रतापूर्वक यहां आया हूं। इसके लिये इन्द्र ने तो मुझसे कहा ही था, महात्मा अर्जुन ने भी अनुरोध किया था। ‘तात ! पाण्डवों को आनंदित करनेवाले युधिष्ठिर ! मैं तुम्हें बड़ा प्रिय समाचार सुनाऊंगा । राजन् ! तुम इन महर्षियों और द्रौपदी के साथ मेरी बात सुनो। भरतकुलभूषण विभो ! तुमने महाबाहु अर्जुन को दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिये जो आदेश दिया था, उसके विषय में यह निवेदन करना है कि अर्जुन ने भगवान् शंकर से उनका अनुपम अस्त्र (पाशुपत) प्राप्त कर लिया है। ‘जो ब्रह्मशिर नामक अस्त्र अमृत से प्रकट होकर तपस्या के प्रभाव से भगवान् शंकर को मिला था, वही पाशुपतास्त्र सव्यसाची अर्जुन ने प्राप्त कर लिया है। ‘युधिष्ठिर ! रूद्र देवता का वह वज्र के समान दुर्भेद्य अस्त्र मन्त्र, उपसंहार, प्रायश्चित और मंगलसहित अर्जुन ने पा लिया है। साथ ही, दण्ड आदि अन्य अस्त्र भी उन्होंने हस्तगत कर लिये हैं। ‘इतना ही नहीं, उन्होंने विश्वावसु के पुत्र से नृत्य, गीत, सामगान और वाद्यकला की भी विधिपूर्वक यथोचित शिक्षा प्राप्त कर ली है। ‘इस प्रकार अस्त्रविद्या में निपुणता प्राप्त करके कुन्ती कुमार ने गान्धर्ववेद (संगीतविद्या) को भी प्राप्त कर लिया है। तब तुम्हारे छोटे भाई भीमसेन के छोटे भाई अर्जुन वहां बड़े सुख से रह रहे हैं। ‘युधिष्ठिर ! देवश्रेष्ठ इन्द्र मुझसे तुम्हारे लिये जो संदेश कहा था, उसे अब तुम्हें बता रहा हूं, सुनो। ‘उन्होंने मुझसे कहा-द्विजोत्तम ! इसमें संदेह नहीं कि आप घूमते-धूमते मनुष्य लोकों में भी जायंेगे। अतः मेरे अनुरोध से राजा युधिष्ठिर के पास जाकर यह बात कह दीजियेगा-‘राजन् ! तुम्हारे भाई अर्जुन अस्त्रविद्या में निपुण हो चुके हैं। अब वे देवताओं का एक बहुत बड़ा कार्य, जिसे देवता स्वयं नहीं कर सकते, सिद्ध करके शीघ्र तुम्हारे पास आ जायेंगे; तबतक तुम भी अपने भाइयों के साथ स्वयं को तपस्या में लगाओ; क्योंकि तपस्या से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। तपस्या से महान् फल की प्राप्ति हाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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