महाभारत विराट पर्व अध्याय 15 श्लोक 5-16

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पन्चदशम (15) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व))

महाभारत: विराट पर्व पन्चदशमोऽध्यायः श्लोक 5-16 का हिन्दी अनुवाद


कीचक ! तुम किसी पर्व या त्यौहार के दिन अपने घर में मदिरा तथा अन्न-भोजन की सामग्री तैयार कराओ । फिर मैं इस सैरन्ध्री को वहाँ से सुरा ले आने के बहाने तुम्हारे पास भेजूँगी। वहाँ भेजी हुई इस सेविका को एकान्त में, जहाँ कोइ्र विघ्न-बाघा न हो, अपनी इच्छा के अनुसार समझाना-बुझाना। सम्भव है, तुम्हारी सान्त्वना मिलने पर यह रमण करने के लिये उद्यत हो जाय’। वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! बहिन के वचन से इस प्रकार आश्वासन मिलने पर कीचक उस समय वहाँ से चला गया और घर जाकर उसने यथासम्भव चतुर रसोइयों के द्वारा राजाओं के उपयोग में आने योग्य उत्तम एवं परिष्कृत मदिरा मँगवायी और भाँति-भाँति के अनेक विशिष्ट और साधारण भक्ष्य पदार्थ एवं परम उत्तम अन्न-पान की तैयारी करायी। उसकी व्यवस्था हो जाने पर कीचक ने सुदेष्णा को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। मूढ़ात्मा कीचक कण्ठ में कालपाश से बँधे हुए पयाु की भाँति अपने निकट आयी हुई मृत्यु को नहीं जान पाता था। वह द्रौपदी को पाने के लिये उतावला हो रहा था। कीचक बोला- सुदेष्णे ! मैंने नाना प्रकार की मीठी मदिरा मँगा ली है और विविध प्रकार की रसोई भी तैयार कर ली है। अब तुम सैरन्ध्री से कह दा, जिससे वह मेरे घर में पधारे। किसी काम के बहाने उसे जल्दी मेरे यहाँ भेजो। मेरा प्रिय कार्य सिद्ध करने में शीघ्रता करो। मैं भगवान शंकर की शरण लेकर यह प्रार्थना करता हूँ कि प्रभो ! मुझे सैरन्ध्री से मिला दो अथवा मृत्यु प्रदान करो। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! तब सुदेष्णा लंबी साँस खींचकर बोली- ‘तुम अपने घर लौअ जाओ। मैं सैरन्ध्री को शीघ्र ही वहाँ से मदिरा ले आने के लिये आज्ञा देती हूँ’। उसके ऐसा कहने पर सैरन्ध्री का चिन्तन करता हुआ पापात्मा कीचक फिर तुरंत ही अपने घर को लौट गयो।। तब सुदेष्णा ने सैरन्ध्री को कीचक के घर जाने के लिये कहा। 1884 सुदेष्णा ने कहा- सैरन्ध्री ! उठो और कीचक के घर जाओ। कल्याणी ! मुझे प्यास विशेष कष्ट दे रही है; अतः वहाँ से मेरे पीने योग्य रस ले आओ। सैरन्ध्री ने कहा- राजकुमारी ! मैं उसके घर नहीं जा सकती। महारानी ! आप तो जानती ही हैं कि वह कैसा निर्लज्ज है । निर्दोष अंगोंवाली देवि ! मैं आपके महल में अपने पतियों की दृष्टि में व्यभिचारिणी और स्वच्छाचारिणी होकर नहीं रहूँगी। भामिनी ! देवि ! पहले आपके इस राजभवन में प्रवेश करते समय मेंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे भी आप जानती ही हैं। कमनीय केशोंवाली सुन्दरी ! मूर्ख कीचक तो काममद से उन्मत्त हो रहा है। वह मुझे देखते ही अपमानित कर बैठेगा। इसलिये मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। राजपुत्री ! आपके अधीन तो और भी बहुत सी दासियाँ हैं; उन्हीं में से किसी दूसरी को भेज दीजिये। आपका कल्याण हो। मेरे जाने से कीचक मेरा अपमान करेगा। सुदेष्णा बोली- शुभे ! मैंने तुम्हें यहाँ से भेजा है, अतः वह कभी तुम्हें कष्ट नहीं देगा। यह कहकर सुदेष्णा ने द्रौपदी के हाथ में ढक्कन सहित एक सुवर्णमस पात्र दे दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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