महाभारत विराट पर्व अध्याय 33 श्लोक 55-61
त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
इसके बाद भीम राजा सुशर्मा का गला पकड़कर ले आये। उस समय वह लाचार होकर उनके वश में पड़ा था और छूटने के लिये छटपटा रहा था। कुन्तीपुत्र भीम ने सुशर्मा को रसिस्यों से बाँधकर रथ पर रचा दिया। उसके सारे अंग धूल से सने थे और चेतना लुप्त सी हो रही थी। इसके बाद भीम ने रणभूमि मे स्थित राजा युधिष्ठिर के पास जाकर उन्हें राजा सुशर्मा को दिखाया। भीम युद्ध में अत्यन्त सुशोभित होते थे। पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर सुशर्मा को उस दशा में देखकर हँसे और भीमसेन से बोले- ‘इस नराधम को छोड़ दो।’ उनके ऐसा कहने पर भीम महाबली सुशर्मा से बोले। भीमसेन ने कहा- मूर्ख ! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो उसका उपाय बताता हूँ; मेरी बात सुन। तुझे सांसदों और सभाओं में जाकर सदा यही कहना होगा कि ‘मैं राजा विराट का दास हूँ’। ऐसा स्वीकार हो तो तुण्े जीवन-दान दूँगा। युद्ध में जीतने वाले पुरुषों का यही नियम है। तब बड़े भ्राता युधिष्ठिर ने भीम से प्रेमपूर्वक कहा। तब युधिष्ठिर बोले- भैया ! यदि तुम मेरी बात मानते हो तो इस पापाचारी को ‘छोड़ दो, छोड़ दो’। यह महाराज विराट का दास तो हो ही चुका है। (इसके बाद वे सुशर्मा से बोले-) ‘तुम दास नहीं रहे, जाओ, छाडत्र दिये गये। फिर कभी -ऐसा काम न करना’।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण करते समय सुशर्मा के निग्रह से सम्बन्ध रखने वाला तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। (दक्षिणात्य अधिक पाठ के 2 श्लोक मिलाकर कुल 63 श्लोक हैं)
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