महाभारत विराट पर्व अध्याय 34 श्लोक 15-19
चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कंकनामधारी युधिष्ठिर के यों कहने पर राजा विराट पुनः उनसे इस प्रकार बोले- ‘द्विजश्रेष्ठ ! बल्लव नामक रसोइये का कर्म भी अद्भुत है। इस युद्ध में बल्लव ने ही मेरी रक्षा की है। निष्पाप विप्रवर ! आके ही करने से यह सब कुद सम्भव हुआ है। आपका कल्याण हो। आत मुझसे वर माँगिये और तत्रबताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपको नाना प्रकार के उत्तमोत्तम रत्न, शय्या, आसन, वाहन, वस्त्राभूषणों से विभूषित सुनदरी कन्याएँ, हाथी, घोड़े और रथों के समूह तथा भाँति-भाँति के जनपद भेंट करता हूँ। सुव्रत ! आप मेरी प्रसन्नता के लिये इन सब वस्तुओं को ग्रहण करें।। तब वहाँ ऐसी बातें कहने वाले राजा विराट को कुरुकुलनन्दन युधिष्ठिर ने इस प्रकार उत्तर दिया- ‘महाराज ! आप शत्रुओं के हाथ से छूट गये, यही मेरे लिये बड़ी प्रसन्नता की बात है। आनध ! आप निर्भय होकर संतोषपूर्वक अपने नगर में प्रवेश करेंगे और अपने स्त्री-पुत्रों से मिलकर सुखी होंगे; यही मेरे लिये अनुपम प्रसन्नता की बात होगी।। ‘महाराज ! अब आपके नगर में सुहृदों से यह प्रिय समाचार बताने के लिये तुरंत ही दूतों को जाना चाहिये। वे दूत वहाँ आपकी विजय घोषित करें।’ तब उनके कथनानुसार राजा विराट ने दूतों को आदेश दिया- ‘दूतों ! तुम लो नगर में जाकर सूचना दो कि युद्ध में मेरी विजय हुई है। कुमारी कन्याएँ श्रृंगार करके स्वागत कि लिये नगर से बाहर आ जाएँ। ‘सब प्रकार के बाजे बजाये जायँ और वेश्याएँ भी सज-धजकर तैयार रहें।’ मत्स्यराज की इस आज्ञा को सुनकर उसे शिरोधार्य करके दूत प्रसन्नचित होकर चले। रात में वहाँ से प्रस्थान करके सूर्योदय होते-होते दूत विराट की राजधानी में जा पहुँचे और वहाँ उन्होंने सब ओर मत्स्यराज की विजय घोषित कर दी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण प्रसंग में जयघोष सम्बन्धी चैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। (दक्षिणात्य अधिक पाठ के 6½ श्लोक मिलाकर कुल 25½ श्लोक हैं)
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