महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 103 श्लोक 16-30

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त्रयधिकशततम (103) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

राजा शत्रु के राज्य की आदी मध्य और अन्तिम सीमा को जानकर गुप्त रूप से मन्त्रियों के साथ बैठकर अपने कर्तव्य का निश्चय कर तथा शत्रु की सेना की संख्या कितनी है इसको अच्छी तरह जानते हुए ही उसमें फूट डलवाने की चेष्टा करे। राजा को चाहिये कि वह दूर रहकर गुप्तचरों द्वारा शत्रु की सेना में मतभेद पैदा करे घुस देकर लोगांे को अपने पक्ष में करने की चेष्टा करे अथवा उनके उपर विभिन्न औषधों का प्रयोग करे परन्तु किसी तरह भी शत्रुओं के साथ प्रकटरूप से साक्षात् सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा न करे। अनुकूल अवसर पाने के लिये कालक्षेप ही करता रहे। उसके लिये दीर्घ कालतक भी प्रतीक्षा करनी पडे तो करे, जिससे शत्रुओं को भलीभाँति विश्वास हो जाय। तदन्तर मौका पाकर उन्हें मार ही डाले। राजा शत्रुओं पर तत्काल आक्रमण न करे। अवश्यम्भावी विजय के उपाय पर विचार करे। न तो उस पर विष का प्रयोग करे और न उसे कठोर वचनों द्वारा ही घायल करे। देवेन्द्र! जो शत्रु को मारना चाहता है, उस पुरूष के लिये बारंबार मौका हाथ में नहीं लगता; अतः जब कभी अवसर मिल जाय, उस समय उस पर अवश्य प्रहार करे। समय की प्रतीक्षा करने वाले पुरूष के लिये जो उपयुक्त अवसर आकर भी चला जाता है, वह अभीष्ट कार्य करने की इच्छावाले उस पुरूष के लिये फिर दुर्लभ हो जाता है। श्रेष्ठ पुरूषों की सम्मति लेकर अपने बल को सदा बढाता रहे। जब तक अनुकूल अवसर न आये, तब तक अपने मित्रों की संख्या बढावें और शत्रु को भी पीडा न दें; परंतु अवसर आ जाय तो शत्रु पर प्रहार करने से न चूकंे। काम, क्रोध तथा अहंकार को त्याग कर सावधानी के साथ बारंबार शत्रुओं के छिद्रों को देखता रहे। सुरश्रेष्ठ इन्द्र! कोमलता, दण्ड, आलस्य, असावधानी और शत्रुओं द्वारा अच्छी तरह प्रयोग की हुई माया- ये अनभिज्ञ राजा को बडे कष्ट में डाल देते है। कोमलता, दण्ड, आलस्य और प्रमाद इन चारों को नष्ट करके शत्रु की माया का भी प्रतीकार करे। तत्पश्चात वह बिना विचारे शत्रुओं पर प्रहार कर सकता है। राजा अकेला ही जिस गुप्त कार्य को कर सके, उसे अवश्य कर डाले; क्योंकि मन्त्री लोग कभी-कभी गुप्त विषय को प्रकाशित कर देते है और नहीं तो आपस में ही एक दूसरे को सुना देते है। जो कार्य अकेले करना असम्भव हो जाय, उसी के लिये दूसरों के साथ बैठकर विचार-विमर्श करे। यदि शत्रु दूरस्थ होने के कारण दृष्टिगोचर न हो तो उस पर ब्रह्मदण्ड का प्रयोग करे और यदि शत्रु निकटवर्ती होने के कारण दृष्टिगोचर हो तो उस पर चतुरंगिणी सेना भेजकर आक्रमण करे। राजा शत्रु के प्रति पहले भेदनीति का प्रयोग करे। तत्पश्चात वह उपयुक्त अवसर आने पर भिन्न-भिन्न शत्रु के प्रति भिन्न-भिन्न समय में चुपचाप दण्डनीति का प्रयोग करे। यदि बलवान् शत्रु से पाला पड जाय और समय उसी के अनुकूल हो तो राजा उसके सामने नतमस्तक हो जाय और जब वह शत्रु असावधान हो, तब स्वयं सावधान और उद्योगशील होकर उसके वध के उपाय का अन्वेषण करे। राजा को चाहिये कि वह मस्तक झुकाकर, दान देकर तथा मीठे वचन बोलकर शत्रु का भी मित्र के समान ही सेवन करे। उसके मन में कभी संदेह न उत्पन्न होने दे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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