महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 104 श्लोक 43-54
चतुरधिकशततम (104) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
देखों, उनकी दीनता और देख लो उनकी मूर्खता, जो इस अनित्य जीवन के लिये मोहवश धन में ही दृष्टि गडाये रहते है। जब संग्रह का अन्त विनाश ही है, जब जीवन का अन्त मृत्यु ही है और जब संयोग का अंत वियोग ही है, तब इनकी और कौन अपना मन लगायेगा। राजन्! चाहे मनुष्य धन को छोडता है, चाहे धन ही मनुष्य को छोड देता है। एक दिन अवश्य ऐसा होता है। इस बात को जानने वाला कौन मनुष्य धन के लिये चिन्ता करेगा। दूसरों पर पडी हुई आपत्ति मूर्ख मनुष्य को संतोष प्रदान करती है। वह समझता है कि मैं उस संकट में नहीं पडा हूँ। इस भेददृष्टि के कारण ही उसे कभी शान्ति नहीं मिलती। राजन्! दूसरों के भी धन और सुह्दय नष्ट होते है; अतः तुम बुद्धि से विचार कर देखों कि दूसरे मनुष्यों के समान ही तुम्हारी अपनी आपत्ति भी है। इन्द्रियों को संयम मे रखो, मन को वश में करो और वाणी का संयम कर के मौन रहा करो । ये मन, वाणी और इन्द्रियाँ दुर्बल हों या अहित कारक , इन्हें विषयों की ओर जाने से रोकने वाला अपने सिवा दूसरा कोई नहीं है। सारे पदार्थ जब संसर्ग में आते हैं, तभी दृष्टिगोचर होते हैं। दूर हो जाने पर उनका दर्शन सम्भव नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में ज्ञान और विज्ञान से तृप्त तथा पराक्रम से सम्पन्न तुम्हारे-जैसा पुरूष शोक नहीं करता है। तुम्हारी इच्छा तो बहुत थोड़ी है। तुम में चपलता का दोष भी नहीं है। तुम्हारा हृदय कोमल और बुद्धि एक निश्चय पर डटी रहने वाली है तथा जितेन्द्रिय होने के साथ ही ब्रह्यचर्य से सम्पन्न भी हो; अतः तुम्हारे -जैसे पुरूष को शोक नहीं करना चाहिये। तुमको हाथ में कपाल लेकर भीख माँगने वालों की तथा निर्दय पुरूषों की उस कपट भरी वृत्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिये , जो अत्यन्त पाप पूर्ण, अनेक दोषों से दूषित तथा कायरों के ही योग्य है। तुम मूल-फल से जीवन-निर्वाह करते हुए विशाल वन में अकेले ही विचरण करो । वाणी को संयम में रखकर मन और इन्द्रियों को काबु में करो और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति दयाभाव बनाये रखो । तुम-जैसे विद्वान् पुरूष के योग्य कार्य तो यह है कि वन में ईषा के समान बड़े-बड़े दँात वाले जंगली हाथी के साथ अकेला विचरे और जंगल के ही पत्र, पुष्प तथा फल-मूल खाकर संतुष्ट रहे। जैसे क्षुब्ध हुआ महान् सरोवर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार विशुद्ध बुद्धि वाला मनुष्य क्षुब्ध होने पर भी निर्मल हो जाता है। अतः राजकुमार! इस अवस्था में तुम्हारा इस रूप में आ जाना; अर्थात् तुम्हारे मन में ऐसे विशुद्ध भाव का उदय होना शुभ है। इस प्रकार के जीवन को ही मैं सुखमय समझता हूँ। राजन्! तुम्हारे लिये अब धन-सम्पत्ति की कोई सम्भावना नहीं है। तुम मन्त्री आदि से भी रहित हो गये हो तथा दैव भी तुम्हारे प्रतिकूल ही है, ऐसी अवस्था में तुम अपने लिये किस मार्ग का अवलम्बन अच्छा समझते हो?
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