महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 105 श्लोक 16-25
पन्चाधिकशततम (105) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
शत्रु को इतने बडे-बडे कार्य करने की प्रेरणा दो, जिनका पूरा होना अत्यन्त कठिन हो और बलवान राजाओं के साथ शत्रु का ऐसा विरोध करा दो, जो किसी विशाल नदी के समान अत्यन्त दुस्तर हो। बडे-बडे बगीचे लगवाकर, बहुमूल्य पलंग बिछौने तथा भोग विलास के अन्य साधनों में खर्च कराकर उसका सारा खजाना खाली करा दो। तुम मिथिला के प्रसिद्ध ब्राह्मणों की प्रशंसा करके उनके द्वारा विदेहराज को बडे बडे यज्ञ और दान करने का उपदेश दिलाओ। नित्य ही वे ब्राह्मण तुम्हारा उपकार करेंगे और विदेहराज को भेडियों के समान नोच खायेंगे। इसमें संदेह नहीं कि पुण्यशील मानव परम गति को प्राप्त होता है। उसे स्वर्गलोक में परम पवित्र स्थान की प्राप्ति होती है। कोसलराज! धर्म अथवा अधर्म या उन दोनों में ही प्रवृत रहने वाले राजा का कोष निश्चय ही खाली हो जाता है। खजाना खाली होते ही राजा अपने शत्रुओं के वश में आ जाता है। शत्रु के राज्य में जो फल मूल और खेती आदि हो, उसे गुप्तरूप से नष्ट करा दे। इससे उसके शत्रु प्रसन्न होते है। यह कार्य किसी मनुष्य का किया हुआ न बतावे। दैवी घटना कहकर इसका वर्णन करे। इसमें संदेह नहीं कि देवका मारा हुआ मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता हैं। हो सके तो शत्रु को विश्वजित नामक यज्ञ में लगा दो और उसके द्वारा दक्षिणारूप में सर्वस्वदान कराकर उसे निर्धन बना दो। इससे तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा। तदनन्तर तुम्हें कष्ट पाते हुए किसी श्रेष्ठपुरूष की दुरवस्था का और किसी योगधर्म के ज्ञाता पुण्यात्मा पुरूष की महिला का राजा के सामने वर्णन करना चाहिये, जिससे शत्रु राजा अपने राज्य को त्याग देने की इच्छा करने लगे। यदि कदाचित वह प्रकृतिस्थ ही रह जाय, उसके ऊपर वैराग्य का प्रभाव न पडे, तब अपने नियुक्त किये हुए पुरूषों द्वारा सर्वशत्रुविनाशक सिद्ध औषध के प्रयोग से शत्रु के हाथी, घोडें और मनुष्यों को मरवा डालना चाहिये। राजकुमार! अपने मन को वश में रखने वाला पुरूष यदि धर्मविरूद्ध आचरण करना सह सके तो ये तथा और भी बहुत से भलीभाँति सोचे हुए कपटपूर्ण प्रयोग हैं, जो उसके द्वारा किये जा सकते है।
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