महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 114 श्लोक 1-16
चतुर्दशाधिकशततम (114) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ
युधिष्ठिर ने पूछा- शत्रुदमन भारत ! यदि कोई ढीठ मूर्ख मधुर या तीखे शब्दों से भरी सभा के बीच किसी विद्वान पुरुष की निन्दा करने लगे, तो उसके साथ कैसा बर्ताव करे? भीष्म ने कहा- भूपाल ! सुनो, इस विषय मे सदा से जैसी बात कही जाती है, उसे बता रहा हूं। विशुद्ध चितवाला पुरुष इस जगत में सदा ही मूर्ख मनुष्य के कठोर वचनों को सहन करता है। जो निन्दा करने वाले पुरुष के ऊपर क्रोध नहीं करता, वह उसके पुण्य को प्राप्त कर लेता है। वह सहनशील अपना सारा पाप उस क्रोधी पुरुष पर ही धो डालता है। अच्छे पुरुष को चाहिये कि वह टिटिहरी या रोगी की तरह टांय-टांय करते हुए उस निन्दाकारी पुरुष की उपेक्षा कर दे। इससे वह सब लोगों के द्वेष का पात्र बन जायगा और उसके सारे सत्कर्म निष्फल हो जायंगे। वह मुर्ख तो उस पापकर्म के द्वारा सदा अपनी प्रशंसा करते हुए कहता है कि मैंने अमुक सम्मानित पुरुष को भरी सभा में ऐसी-ऐसी बातें सुनायी कि वह लाज से गड़ गया, इस प्रकार निन्दनीय कर्म करके वह अपनी प्रशंसा करता है और तनिक भी लजाता नहीं है।। ऐसे नराधम की यत्नपूर्वक उपेक्षा कर देनी चाहिये । मूर्ख मनुष्य जो कुछ भी कह दे, विद्वान पुरुष को वह सब सह लेना चाहिये। जैसे वन में कोआ व्यर्थ ही कांव-कांव किया करता है, उसी तरह मुर्ख मनुष्य भी अकारण ही निन्दा करता है। वह प्रशंसा करे या निन्दा, किसी का क्या भला या बुरा करेगा? अर्थात कुछ भी नहीं कर सकेगा। यदि पापाचारी पुरुष के कटुवचन बोलने पर बदले में वैसे ही वचनों का प्रयोग किया जाय तो उससे केवल वाणी द्वारा कलहमात्र होगा। जो हिंसा करना चाहता है, उसका गाली देने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। मयूर जब नाच दिखाता है, उस समय वह अपने गुप्त अंगों को भी उघाड़ देता है। इसी प्रकार जो मूर्ख अनुचित आचरण करता है वह उस कुचेष्टा द्वारा अपने छिपे हुए दोषों को प्रकट करता है। संसार में जिसके लिये कुछ भी कह देना या कर डालना असम्भव नहीं है, ऐसे मनुष्य से उस भले मनुष्य को बात भी नहीं करनी चाहिये जो अपने सत्कर्म के द्वारा विशुद्ध समझा जाता है। जो सामने आकर गुण गाता है और परोक्ष में निन्दा करता है, वह मनुष्य में कुते के सामने है। उसके लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं । परोक्ष में परनिन्दा करने वाला मनुष्य सैकड़ों मनुष्यों को जो कुछ दान देता हैं और होम करता है, उन सब अपने कर्मों को तत्काल नष्ट कर देता है। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह वैसे पापपूर्ण विचार वाले पुरुष को तत्काल त्याग दे। वह कुते के मांस के समान साधु पुरुषों के लिये सदा ही त्याज्य है। जैसे सांप अपने फन को उंचा उठाकर प्रकाशित करता है, उसी प्रकार जनसमुदाय में किसी महापुरुष की निन्दा करने वाला दुरात्मा अपने ही दोषों को प्रकट करता है।। जो परनिन्दा रुप अपना कार्य करने वाले दुष्ट पुरुष से बदला लेना चाहता है, वह राख में लोटने वाला मुर्ख गदहे के समान केवल दु:ख में निमग्न होता है ।
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